पिताकी आज्ञा का पालन करने के लिये दशरथनन्दन श्रीराम अपनी सती सहधर्मिणी जनकनन्दिनी और अनुज लक्ष्मण के साथ वन में गये। वे चित्रकूट और दण्डकारण्य में तेरह वर्षो तक ऋषियों-महर्षियों एवं समस्त प्राणियों को कृतार्था करते हुए विचरण करते रहे। असुर जहाँ-कहीं तपस्वी मुनियों को कष्ट पहुँचाते, भगवान् श्रीराम वहीं असुरों का बध कर मुनियों का जीवन निरापद कर देते।
चैदहवें वर्ष में वे पंचवटी में एक सुन्दर पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। एक दिन लंकाधिपति रावणी की प्रेरणा से मारीच कांज्न-मृग वेष में उनकी कुटी के सामने घूमने लगा। जनकनन्दिनी उस अदभुद मृग को देखकर मुग्ध हो गयीं। उन्होंने उस सुवर्ण मृगको ले आने के लिये भगवान् श्रीराम से प्रार्थना की। भगवान् श्रीराम सुवर्ण-मृग के पीछे दौड़े और उधर रावण ने छल से सीता का हरण कर लिया। उसने भगवती सीता को ले जाकर लंका की अशाोक-वाटिका में रख दिया।
जनकदुलारी को ढूँढते हुए सानुज श्रीराम विराध, कबन्ध आदि का वध करते ऋष्यमूक पर्वत की ओर जा निकले।
सुग्रीव के मनमें वाली के भयके कारण सदा शंका बनी रहती थी। उन्होंने मन्त्रियों के साथ जब गिरि-शिखर से आजानुबाहु, धनुष-वाणधारी, विशाल नेत्रों वाले तथा देवकुमारों की तरह तेजस्वी दोनों वीर भाइयों को देखा तो वे भयसे काँप गये।
व्याकुल होकर सुग्रीव ने हनुमानजी से कहा-‘इन दोनों वीरों को देखकर मेरा मन भयाक्रान्त हो रहा है। सम्भव है, मेरे प्राणों के शत्रु वाली ने मुझे मार डालने के लिये इन्हें भेजा हो। राजाओं के मित्र अधिक होते हैं, अतएव इन पर विश्वास करना उचित नहीं। मनुश्या को छद्य वेष में विचरने वाले शुत्रओं को विशेष रूपसे पहचानने की चेष्टा करनी चाहिये; क्यों कि वे दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेते हैं, परंतु स्वयं किसी का विश्वास नहीं करते और अवसर पाते ही उन विश्वासी पुरूषों पर ही प्रहार कर बैठते हैं। वाली इसमें बड़ा पटु है। अतएव कपिश्रेष्ठ! तुम सामान्य व्यक्ति की भाँति इनके समीप जाकर इनका तथा इनके मनोभावों का परिचय प्राप्त कर लो। यदि इन्हें वाली ने भेजा हो तो तुम वहीं से संकेत कर देना; मैं मन्त्रियों सहित इस पर्वत से तुरंत भागकर अन्यत्र शरण लूँगा।’
पवनकुमार अपने प्राणधन महाधनुर्धर श्यामल-गौर श्रीराम-लक्षमण को पहचान नहीं रहे थे, किंतु उनके दायें अंग फड़क रहे थे। उनके नेत्रों में पे्रमाश्रु छलक आये और हृदय बरबस उनकी ओर आकृष्ट हो रहा था।
वानरश्रेष्ठ सुग्रीव का उद्देश्य समझकर पवनकुमार ऋष्यमूक पर्वत से उछलते हुए चले। मार्ग में उन्होंने ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया। अभूतपूर्व एवं अश्रुतपूर्व सौन्दर्य से युक्त श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन कर हनुमानजी की अत्यन्त विचित्र दशा हो गयी। उनका मस्तक स्वतः उनके चरणों में झुक गया। फिर उन्होंने हाथ जोड़कर मनको अत्यन्त प्रिय लगनेवाली विनम्र वाणी में पूछा-‘वीरवर! श्याम और गौरवर्ण वाले अन्यतम सुन्दर पुरूष आप लोग कौन हैं? निश्चय ही आपलोग वीरपुंगव क्षत्रियकुमार हैं। किंतु आप अत्यन्त कोमल हैं और यहाँ पर्वत तथा वन अत्यन्त भयानक हैं; सर्वत्र व्याघ्नादि हिंसक पशुओं का भय है। मार्ग कंकड़ों, पत्थरों एवं कुश-कण्टकों से भरा पड़ा है। आपके चरण कमलों के उपयुक्त यह कठोर भूमि कदापि नहीं है। फिर भी आप लोग किस कारण इस निर्जन वन में विचरण कर रहे हैं!’
हनुमानजी ने आगे कहा-‘मैं आपलोगों का तेजस्वी स्वरूप देखकर चकित हो रहा हूँ। कोई साधारण क्षत्रियकुमार इतना तेजस्वी नहीं हो सकता। लोकोत्तर तेजोमय पुरूष आप कौन हैं? कृपापूर्वक बता दें कि आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश-इन तीनों देवताओं में से कोई हैं या  आप नर और नारायण हैं? अथवा आप निखिल सृष्टिके स्वामी स्वयं परब्रह्म परमात्मा तो नहीं हैं, जो भू-भार-हरणार्थ युगल रूपों में अवतरित होकर मुझे सनाथ करने यहाँ पधारे हैं?
बातचीत करने में कुशल हनुमानजी के चुप होते ही भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-‘भाई लक्ष्मण! इनके विद्वत्तापूर्ण शुद्ध उच्चारण से स्पष्ट है कि ये व्याकरण-शास्त्रों के पारंगत विद्वान तो हैं ही, इन्होंने वेदों का गहन अध्ययन भी किया है। निश्चय ही इन्होंने समस्त शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है; क्यों कि ये संस्कार और क्रम से सम्पन्न अद्भुत, अविलम्बित तथा हृदय को आनन्द प्रदान करनेवाली कल्याणमयी वांणी का उच्चारण करते हैं। हृदय, कण्ठ और मूर्धा- इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होनेवाली इनकी इस विचित्र वाणाी को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होेगा! वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है। तुम इनसे वार्ता करो।’
अग्रज का आदेश प्राप्त होते ही सुमित्रानन्दन ने ब्राह्मणवेषधारी पवनकुमार से कहा-‘ब्राह्मन्! हम दोनों अयोध्या के प्रख्यात धर्मात्मा राजा दशरथ के पुत्र हैं। ये मेरे बड़े भाई हैं; इनका नाम श्री राम है और मेरा लक्ष्मण। पिताकी आज्ञासे हम चैदह वर्ष के लिये अरण्यवास करने आये हैं। यहाँ पंचवटी में इनकी सती पत्नी सीता को किसी राक्षस ने छलपूर्वक हरण कर लिया। हम लोग इस बीहड़ वन में उन्हें ही ढूँढते फिर रहे हैं। आप कौन हैं? कृपया अपना परिचय दीजिये।’
पवनकुमार सुमित्रानन्दन से युगल रूपों का परिचय तो प्राप्त कर रहे थे, किंतु उनका ध्यान केन्द्रित था जटा-जाल से सुशोभित नव-नीरद-वपु श्रीराम के मुखारविन्द पर। भुवनमोहन रूप जैसे उनके रोम-रोम में प्रविष्ट हो रहा था। उनके नेत्र सजल एवं अंग पुलकित थे। अपने प्रभु का परिचय प्राप्त होने पर तो उन्हे ंअपनी सुधि भी न रही। पवनकुमार प्राणाराम श्रीराम के त्रैलोक्य-दुर्लभ पावन पद-पद्यों में साष्टांग पड़ गये। वे व्याकुल होकर पे्रमाश्रुओं से उन भवाब्धिपोत युगल पद्यरूण-चरणों का प्रक्षालन करने लगे।
आन्जनेय का अश्रु-प्रवाह विराम नहीं ले रहा था। वाणी अवरूद्ध थी। धैर्यपूर्वक किसी प्रकार हाथ जोड़कर उन्होंने प्रार्थना की-‘दयाधाम प्रभो! मैं पामर आपको पहचान नहीं सका-भूल गया, यह तो स्वाभविक है; किंतु आप अनजान बनकर यह कैसा प्रश्न कर रहे हैं! आप मुझे कैसे भूल गये! इन त्रैलोक्यत्राता चरण-कमलों के अतिरिक्त मेरे लिये और क्या अवलम्ब है? करूणासिन्धु! अब आप दया कीजिये। मुझे अपना लिजिये नाथ!’
‘दयाधाम! करूणासिन्धु!!’-निश्चय ही वे भुवनपावन श्रीराम करूणानिधि हैं। उनके पावनतम पाद-पद्यों के पराग से करूणा-वारिधि ही तो प्रतिक्षण उच्छलित होता रहता है; पर उन्हें छल-कपट प्रिय नहीं। आवरण से उनकी झाँकी सम्भव नहीं। वे परमोदार सीतावल्लभ सर्वथा निश्छल, निष्कपट, सरल हृदय देखते हैं और पवनकुमार उपस्थित थे ब्राह्मण के वेष में। उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूपपर आवरण डाल रखा था, इस कारण कमल-नयन श्री राम उनकी ओर अपलक दृगों से देख रहे थे; पर थे वे सर्वथा मौन।
मरूतात्मजकी अधीरता बढ़ती जा रही थी। अत्यधिक आकुल-चित्तसे रूदन करते हुए वे प्रार्थना करने लगे-‘प्रभो! मैं मोहग्रस्त, अज्ञानान्धकार में पड़ा हुआ एवं कुटिल-हृदय हूँ उस पर आपने मुझे विस्मरण कर दिया, फिर मेरी क्या दशा हो! दयामय! अब आप दया करें’-
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
प्राणाराध्य प्रभुके सम्मुख अशान्त चित्त से करूण प्रार्थना करते हुए हनुमानजी आत्म-विस्मृत हो गये। उन्हें अपने छद्य-वेष का ध्यान नहीं रहा। उनका ब्राह्मण-वेष स्वतः दूर हो गया। वे अब अपने वास्तविक वानर-रूप में प्रभु के चरणों में गिरकर रूदन करते हुए प्रार्थना कर रहे थे।
करूणामय श्रीराम ने अपने अनन्य भक्त हनुमानजी को वास्तविक वानर-रूप में देखा; फिर क्या देर थी। उन्होंने तत्क्षण समीरकुमार को उठाया और अपनी प्रलम्ब भुजाओं में भरकर उन्हें अपने वक्ष से सटा लिया। उस समय भगवान् और भक्त-दोनों की अदभुत दशा थी। प्रेममूर्ति भक्तवत्सल श्रीराम अपना अभयद-मंगलमय कर-कमल हनुमानजी के मस्तकपर फेर रहे थे और वे शिशुकी भाँति परमप्रभु के विशाल वक्ष से चिपके हुए सिसक रहे थे। उनकी वाणी अवरूद्ध हो गयी थी।
अपने प्रभु श्रीराम की प्रीति का विश्वास हो जाने पर हनुमानजी ने श्रीरामानुज लक्षमण के चरणों में प्रणाम किया। सुमित्रानन्दन ने भी उन्हें तुरंत उठाकर हृदय से लगा लिया। इसके अनन्तर हनुमानजी ने भगवान् श्रीराम को सुग्रीव का परिचय दिया। नीति-निपुण पवनकुमार ने श्रीराम के मुखारविन्द को अलग दृगों से देखते हुए विनम्र वाणाी में कहा-‘प्रभो। अपने ज्येष्ठ भ्राता वाली की भयानक शत्रुता के कारण सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करते हैं। वे राज्य से बहिष्कृत और स्त्री के वियोग में अतिशय दुःखी हैं। वे वनों-पर्वतों में विपत्ति के दिन व्यतीत कर रहे हैं। यही स्थिति आपकी भी है। सुग्रीव को समर्थ सहयोगी की आवश्यकता है। यदि आप उनसे मैत्री स्थापित कर लें तो निश्चय ही सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता होगी और अपना राज्य तथा पत्नी प्राप्त हो जाने पर वे सीता के अन्वेषण एवं उन्हें प्राप्त कराने में बहुमूल्य सहयोग प्रदान कर सकेंगे। अतएव मेरी प्रार्थना है कि आप सुग्रीव को आत्मीय बना लें।’
भगवान श्रीराम की स्वीकृति मिलते ही पवनकुमार उन युगल मूर्तियों को अपने कंधों पर बैठाकर ऋष्यमूक के लिये चल पड़े। हनुमानजी को श्रीराम-लक्ष्मणसहित अपनी ओर आते देखकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई।
श्री आन्जनेय युगल मूर्तियों सहित सुग्रीव के समीप पहुँचे। सुग्रीव ने उन परम तेजस्वी कुमारों को प्रणाम किया। हनुमानजी ने सुग्रीव का भगवान् श्री राम से परिचय कराया। तदनन्तर उन्होंने प्रज्वलित अग्निको साक्षी देकर धर्मवत्सल श्रीराम एवं सुग्रीव में मैत्री स्थापित करा दी। भगवान् श्रीराम एवं वानरराज सुग्रीव दोनों प्रसन्न हुए। फिर सुग्रीव अधिक पत्ते और फूलोंवाली शाखा बिछाकर उस पर अत्यन्त आदरपूर्वक सीतापति श्रीराम को बैठाकर स्वयं उनके साथ बैठे। हनुमानजी ने चन्दन-वृक्षकी एक पुष्पित डाली तोड़कर सुमित्रानन्दन को बैठने के लिये दी।
हर्षोत्फुल्ल सुग्रीव ने स्निग्ध-मधुर वाणी में अपनी विस्तृत कथा सुनाते हुए श्रीदशरथनन्दन से कहा-‘रघुनन्दन! वाली ने मेरी प्राणप्रिय पत्नी को मुझसे छीनकर अत्यन्त क्रूरतापूर्वक मुझे निकाल दिया। मैं उन्हीं के त्रास और भय से उद्भ्रान्तचित्त होकर इस पर्वत पर निवास करता हूँ आप मुझे अभय कर दीजिये।’
भगवान् श्रीराम ने वचन दिया-‘मित्र सुग्रीव! मैं वाली को अपने एक ही वाण से मार डालूँगा। विश्वास करो, मेरे अमोघ वाण से उसके प्राणों की रक्षा किसी प्रकार सम्भव नहीं।’
निखिल भुवनपावन भगवान् श्रीराम के एक ही वाण से वाली मारे गये। त्रैलोक्यत्राता श्रीराम के सम्मुख उन्होंने अपने भौतिक कलेवरका त्याग किया। पति की मृत्यु का संवाद सुनकर वाली की पत्नी तारा वहाँ आकर करूण क्रन्दन करने लगी। उस समय ताराको समझाते हुए परम वीतराग हनुमानजी ने कहा था कि ‘देवि! जीव के द्वारा गुण-बुद्धि से अथवा दोष बुद्धि से किये हुए जो अपने कर्म हैं, वे ही सुख-दुःखरूप फलकी प्राप्ति कराने वाले होते हैं। परलोक में जाकर प्रत्येक जीव शान्तभाव से रहकर अपने शुभ और अशुभ-सभी कर्मों का फल भोगता है। तुम स्वयं शोचनीया हो, फिर दूसरे किसे शोचनीय समझकर शोक कर रही हो? पानी के बुलबुले के समान इस शरीर में रहकर कौन जीव किस जीव के लिये शोचनीय है! देवि! तुम विदुषी हो; अतः जानती ही हो कि प्राणियों के जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिये शुभ (परलोक के लिये सुखद) कर्म ही करना चाहिये। अधिक रोना-धोना आदि जो लौकिक कर्म (व्यवहार) है, उसे नहीं करना चाहिये।’
पवनकुमार तारा को समझाते हुये यह भी कहते हैं कि ‘तुम्हारे पुत्र अंगद जीवित हैं। अब तुम्हें उन्हीं की ओर देखना चाहिये और इनके लिये भविष्य में जो उन्नति के साधक श्रेष्ठ कार्य हों, उनका विचार करना चाहिये।’
वाली का अन्त्येष्टि-संस्कार हुआ। श्रीलक्ष्मणजी ने कपिराज सग्रीव को किष्किन्धाधिपति के पद पर सविधि अभिषिक्त कर दिया। वाली-पुत्र अंगद युवराज हुए। सुग्रीव को धन-सम्पत्ति, राज्य और पत्नी आदि सभी अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त हो गयीं। अशरणशरण
श्रीराम की कृपा से क्या नहीं प्राप्त होता!
सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे; किंतु पिता की आज्ञा का आदर करते हुए भगवान् श्रीराम ने नगर में प्रवेश नहीं किया। वे चातुर्मास्य व्यतीत करने के लिये प्रस्त्रवण-गिरिपर चले गये।
आन्जनेय प्रतिक्षण अपने परमाराध्य परमप्रभु श्रीराम के चरणों में ही रहना चाहते थे, किंतु सग्रीव ने अभी-अभी राज्य-पद का दाचित्व ग्रहण किया था; कार्य-संचालन के लिये निपुण सचिव की नितान्त आवश्यकता थी; इस कारण लोकोपकारी श्रीराम ने उन्हें सुग्रीव के कार्य में सहयोग प्रदान करने की आज्ञा दी। हनुमानजी के लिये प्रभु का आदेश ही सर्वोपरि कर्तव्य है। वे किष्किन्धा में सुग्रीव समीप रहने लगे।
सारांस यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को श्रीहनुमानजी की सेवा करते हुए उनसे सीखना चाहिये जिससे हमेशा कल्याण होगा।
पाठकबन्धु को सादर-जय सियाराम, जय हनुमान।
लेखक-अनिल यादव।

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