तदादि सर्वदेवानां पूज्योऽस्मि मुनिसत्तम।
नाम नाम प्रभा दिव्या राजते में हृदिस्थले।।
महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।

श्री गणेशजी ने ऋषि-मुनियों से श्रीरामनाम के कीर्तन से अपना प्रथम पूज्य होना कहा है और ऐसा भी कहा है कि ‘‘श्रीराम’’ नाम प्रभाव आज भी उनके हृदय में विराजमान एवं प्रकाशित है। जगदीश्वरों द्वारा इनको श्रीराम की महिमा का उपदेश करना भी लिखा है यथा-गनेश पुराण के अनुसार कहा गया है-
रामनाम परं ध्येयं ज्ञेयं पेयमहर्निशम्।
सर्वदा सदभिरित्युक्तं पूर्वं मांजगदीश्वरैः।।
अर्थात श्रीराम नाम ध्यान का श्रेष्ठतम विषय है। यही एक जानने योग्य तत्व है। इसका दिन-रात पान (उच्चारण) करना चाहिये। ऐसा सत्यप्रतिष्ठापक ब्रह्मा जी आदि जगदीश्वरों के द्वारा मुझे उपदेश प्राप्त हुआ है। इसी गणेशपुराण के अन्तर्गत उन्होंने कहा है-
अहं पूज्योऽभवंल्लोके श्रीमन्नामानुकीत्र्तनात्।
अतः श्रीरामनाम्नस्तु कीर्तनं सर्वदोचितम्।।
श्रीभगवान् के इस पावन नाम के सतत कीर्तन से ही मैं संसार में पूज्य हुआ हूँ। अतः श्रीराम नाम का कीर्तन सर्वदा उचित है।
तदादि सर्वदेवानां पूज्योऽस्मि मुनिसत्तम।
रामनाम प्रभा दिव्या राजते में ह्मदिस्थले।।
‘‘मुनिश्रेष्ठ! मेरे हृदय स्थान में श्रीराम नाम की दिव्य ज्योति विराजमान है। अतः मैं सभी देवताओं में अग्रगण्य होकर पूज्य हो गया हूँ।
‘‘महिमा जासु  जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।’’
रामनाम को प्रभाउ पूजियत गनराउ, कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
श्रीराम नाम के प्रभाव से गणेश जी सर्वप्रथम पूजे जाते हैं। गणेश जी ने अपनी करनी को स्वयं कहा है, कुछ छिपाकर नहीं रक्खा।
गणेश का वास्तविक अर्थ क्या है?
‘‘गणानां जीवजातानां य ईशः, स्वामी स गणेशः’’
जो समस्त जीव समूह के ईश, स्वामी हों। गण का अर्थ है वर्ग, समूह, समुदाय। ये गणों के अधिपति हैं। ईश का अर्थ है स्वामी। शिवगणों एवं विध्नकारक गण-देवों के स्वामी होने से उन्हें गणेश कहते हैं। आठ वसु, ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य गण देवता कहे गये हैं। ‘स्तोत्र रत्नाकर’ में उन्हें भूतगणादिवेवित कहा हैै।
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारूभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विध्नेश्वरपादपंकजम्।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- ‘‘श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ’’। पार्वती जी को श्रद्धा और शंकर जी को विश्वास का रूप माना है। किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए श्रद्धा-विश्वास, दोनों का ही होना आवश्यक है। जब तक श्रद्धा न होगी, तब तक विश्वास नहीं हो सकता तथा विश्वास के अभाव में श्रद्धा भी नहीं ठहर पाती। अतः किसी लक्ष्य या सिद्धि की पूर्ति के लिए दोनों का होना अत्यन्त आवश्यक है। ठीक वैसे ही पार्वती जी और शिव जी से गणेश जी हुए। अतः गणेश जी सिद्धि और अभीष्ट पूर्ति के प्रतीक हैं।
जो सुमिरत सिधि होई गननायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोई बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
गणेश जी बृद्धि के अधिष्ठाता देव भी हैं। स्वयं असाधारण युक्ति-बुद्धि से सम्पन्न होने के कारण वे अपने भक्तों को सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। बुद्धि एक महान् शक्ति है-‘‘बृद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कृतो बलम्’’। अंग्रेजी में भी एक कहावत है-“Knowledge is power” ग्रीसदेशीय दार्शनिक सुकरात जी कहा करते थे- Knowledge is Virtue ‘‘ज्ञान ही सद्गुण है। समस्त दुर्गुण आान में ही पनपते हैं। आज्ञान ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इसीलिये हमारे परमर्षियों ने कार्यारम्भ से पूर्व सद्बुद्धिदाता गणेश जी के स्मरण तथा पूजन का विधान रक्खा है।
सिद्धिसदन, गजबदन बिनायक। कृपासिन्धु सुन्दर सब लायक।।
महामहिम गणेश जी लघु से लघु को भी अनुगृहीत करते हैं। यही भाव मूषक को अपना वाहन बनाने से प्रकट होता है। हाथी को अपना दाँत बहुत प्यारा होता है; वह उसे श्रूाुभ्र बनाये रखता है, परन्तु हाथी के मस्तक वाले गजानन जी ने क्या किया है? अपने एक दाँत को तोड़कर उसके अग्र भाग को तीक्ष्ण बनाकर उसके द्वारा उन्होंने महाभारत लेखन का कार्य सम्पन्न कर भगवान् वेदव्यास जी का सहयोग किया। विद्यापार्जन धर्म और न्याय के लिए प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करना चाहिए- यही रहस्य इससे प्रकट होता है।
प्रथम पूजिअत- इस सन्दर्भ में अनेक आख्यायिकाएँ प्रचलित हैं शैव तन्त्र के अनुसार एक बार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सब देवताओं से पूछा कि तुम में से प्रथम पूज्य होने का अधिकारी कौन है? तब सभी देवताओं ने अपने-अपने को अग्र-पूज्य घोषित किया। साथ ही अपने-अपने गणों का बखान करने लगे। अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करने लगे। आपस में वाद-विवाद होने लगा। तर्क-वितर्क के साथ आपस में संघर्ष छिड़ गया। आपसी मतभेद उभरने लगे। समस्या और भी जटिल हो गयी। इस घटनाचक्र को वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में आँका जाय तो ठीक यही बात हम आज भी समाज में देखते हैं कि कोई भी किसी से झुकता नहीं है; हार स्वीकार करने की बात दूर रही; बल्कि घमण्ड में अकड़ते हैं; भले ही उन्हें लेने के बदले देने पड़े। आज एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दबोचना चाहता है; अपना प्रभुत्त जमाना चाहता है। क्या यही मानवता की संज्ञा है? मानवता जब भोग-वासना की ओर झुक जाती है, तब उसका नाम हो जाता है ‘पशुता’ और जब मानवता उलट जाती है, तब उसका नाम हो जाता है ‘दानवता’। पशुता मानवता की कमजोरी है और दानवता मानवता की मौत। ‘पर-दुःख’ में सहृदयता ही मनुष्य का सर्वप्रधान ‘मनुष्यत्व’ तथा मानव की सर्वप्रधान ‘‘मानवता’’ है।
जब पारस्परिक वार्तालाप से इस प्रश्न का निर्णय न हो सका, तब सर्वसम्मति से देवताओं ने विधि-ब्रह्मा जी को ही अन्तिम निर्णय के लिये प्रेरित किया। ब्रह्माजी ने विचार किया यदि किसी देव विशेष को मैं अग्र-पूज्य घोषित कर दूँ तो अन्य देवतागण मेरी भर्तस्ना करेंगे, साथ ही न्याय का सन्तुलन बिगड़ जायेगा। ब्रह्माजी ने समाधि लगायी, अन्ततोगत्वा उन्हें एक युक्ति सूझ गई। उन्होंने कहा आप सब अपने-अपने वाहनों पर यहाँ से एक साथ दौडिये तथा सर्व तीर्थमयी वसुन्धरा की परिक्रमा करके मेरे पास लौट आइये। जो मेरे पास सबसे पहले पहुँचेगा वही ‘‘अग्रपूजा’’ का अधिकारी समझा जायेगा। बस क्या था, ब्रह्माजी के ऐसा कहते ही देवराज इन्द्र ऐरावत पर, कार्तिकेय स्वामी अपने मयूर पर तथा अन्य सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर पृथ्वी की परिक्रमा करने दौड़ पडे़।
मूषक वाहन गणेशजी को इस प्रतियोगिता में भाग लेना दुष्कर जान पड़ा। क्योंकि, कहाँ सुपर सोनिक विमान और कहाँ एक बैलगाड़ी। दोनों की तुलना कहाँ तक सम्भव है; किन्तु कर्मशील पुरूषार्थी के लिए कोई भी कार्य अशक्त नहीं है। आपने कछुआ और खरगोश की कहानी सुनी होगी। सोये हुए सिंह के मुख में पशु प्रवेश नहीं करता।
देवर्षि नारद जी भी वहाँ उपस्थित थे। वे सभी देवताओं की गतिविधियों पर दृष्टिपात किये हुए थे। शानदार विश्व ओलम्पिक दौड़ की प्रतियोगिताएँ शुरू हो चुकी थीं। इस दौड़ की कड़ी प्रतिस्पर्धा में केवल मूषक वाहन गणेश जी की हालत बड़ी दयनीय थी। दयावान् नारद जी की उन पर कृपादृष्टि हुई।
नारद जी ने कहा कि ओह! गणेश जी, जाप ये क्या कर रहे है। आप स्वयं ‘‘विद्या वारिधि-बुद्धि विधाता’’। की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। आप शक्ति से  नहीं बल्कि बृद्धि से काम लें, तो आप अवश्यमेंव अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे। नारद जी ने एक युक्ति सुझाायी। उन्होंने कहा कि- वसुन्धरा में ‘राम’ नाम लेखनजप कर’’ उन्हीं की परिक्रमा करें। क्यों कि इन्हीं दो अक्षरों के अन्तर्गत कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं। ये ही निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार परब्रह्म परमात्मा हैं। रामनाम कण-कण में रम रहे हैं। उनकी गति सर्वत्र है। वे सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वज्ञ हैं वे विश्वात्मा है। यह सारा संसार उन्हीं का शरीर है। ‘‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’’। यह सब कुछ ब्रह्म ही है। ‘‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि’’ अर्थात् उस परब्रह्म परमात्मा के एक चरण में सारा संसार है।
कहावत है- “A drowning man catches a straw” (डूबते को तिनके का सहारा) गणेश जी आश्वस्त हुए किनारा लगने का सहारा मिल गया, नारदजी के उपदेशामृत के द्वारा। बस फिर क्या था-एकदन्ती गजानन ने सर्वतीर्थमयी बसुन्धरा में दिव्य दो अक्षरों का ‘‘राम’’ नाम लेखनजप किया। तत्पश्चात् मूषक वाहन में सवार होकर लिखित ‘‘राम’’ नाम की परिक्रमा की। परिक्रमा शुरू करते ही एक अद्भुद घटना घटी। रामनाम का प्रभाव सब देवताओं को दीखने लगा। परिक्रमा मार्ग में वे जहाँ-जहाँ पहुँचते वहाँ-वहाँ उन्हें अपने आगे मूषक के पैरों के चिन्ह प्राप्त होते थे। इस तरह तो रामनाम ने अपना निर्णय प्रत्यक्ष दिख दिया।
बदीक्षणच्छम्भुसुतो गणाधिपः सुरासुरैः प्राथमिकः प्रपूज्य।
प्रदक्षिण यस्य कृते समस्ता क्षमावती स्यात् परितः प्रदक्षिणा।।
अब परिक्रमा पूरी करके क्रमशः एक-एक देवता प्रजापति पितामह ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए। ब्रह्माजी ने निर्विरोध रूप से अपना निर्णय सुनाया। ब्रह्माजी के घोषणा-पत्र में लिखा था कि ‘‘यह परमश्रेष्ठत्व प्रथम पूजनीयत्व भवभयहरण, गंगलकरण, शुभचरण श्रीविनायक को प्राप्त है’’ अतः श्रीरामचरितमान के स्वर्णाक्षरों में उद्धृत है कि महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाउ।।
शिवजी सादर भजते हैं, ‘‘सादर जपहु अनँग आराती’’। गणेशजी ने पृथवी पर ही नाम लिखकर परिक्रमा कर ली, शुद्धता अशुद्धता आदि का विचार न किया और वाल्मीकिजी ने उलटा ही नाम जपा। ‘‘भयउ‘‘ सुद्ध करि उलटा जापू’’। तात्पर्य यह है कि आदर से, शुद्धता या अशुद्धता से सीधा, या उलटा कैसे भी नाम जपिये या लिखिये, वह सर्व सिद्धियों और कल्याणों को देरन वाला है। “Written japa washes away the sins, and the sinless realizes his goal within.” अर्थात् लिखित जप पापों को धोता है और निश्पाप व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
सारांस श्रीरामनाम जप की आलोकिक महिमा है। दिन-रात उच्चारण करते रहिये।
जय सियाराम, जय हनुमान। 
लेखक-अनिल यादव।

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