श्रीकृष्ण स्वरूप अधिकमास की स्नान, दान, पुण्य, तप आदि का एवं अधिकमास की प्रथम अध्याय की कथा एवं महात्म्य-

1. प्रथम अध्याय- श्रीसूतजी का मुनियों से तीर्थो का वर्णन तथा शुकदेव जी का आगमन।

भक्तों को कल्पवृक्ष, बृन्दावन में लीला विनोद करने वाले बृन्दावन बिहारी, अद्भुत पुरुषोत्तम भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ नरों में श्रेष्ठ भगवान नर नारायण को नमस्कार कर माता सरस्वती तथा जगद्गुरु व्यासजी को सत्कार्य में सफलता प्राप्त करने के निमित्त प्रणाम करता हूँ नैमिषारण्य क्षेत्र में यज्ञ करने की इच्छा से बहुत से मुनि आये जिनके नाम ये हैंअसित, देबल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, काश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्भ, मांडब्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बुध, बौद्धायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, धूम, शंकु, संकृति, शनि, विभांडक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमय, मौन, भार्गव, कर्कश, शौनक, शतानन्द, महातप, विशालाक्ष, विष्णुवृद्ध, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शांडीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधर, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्दू, कालाग्नि, रुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवा आदि ब्रह्मिष्ठ और वेदपाठी ऋषिगण अपने शिष्यों सहित लोक कल्याण करने के विचार से एकत्रित हुए, क्योंकि ये सदैव परोपकार में लगे रहकर वेदानुकूल कर्म करते हुए दूसरों के हित में संलग्न रहते थे ये नैमिषारण्य क्षेत्र में यज्ञ शुभ कर्म) करने के लिये इकट्ठे हुए थे इधर सूतजी भी तीर्थों का भ्रमण करते हुए अपने शिष्यों के साथ पहुँचे । वहां सूतजी ने संसार सागर से पार उतारने वाले समस्त ऋषिगणों का दर्शन किया और शिष्यों सहित सबको नमस्कार करके सूतजी आनन्द मग्न हो गये । ऋषियों ने लाल रंग की वृक्ष की छाल पहने प्रसन्न मुख, शान्त, सद्गुण युक्त, परमार्थी, आनन्द स्वरूप परम तत्त्व के जानने वाले सूतजी को ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाये, गोपी चंदन की मृत्तिका से राम नाम तथा दिव्य शंख और चक्र का छापा लगाये, तुलसी की माला तथा जटाओं के मुकुट से शोभित महा अद्भुत मंत्र का जाप करते हुए सब शास्त्रों के सार तत्त्व के ज्ञाता सब जीवों का हित करने वाले, इन्द्रियों और क्रोध को जीतने वाले जीवन्मुक्त, जगत के गुरु वेदव्यासजी के कृपा-पात्र और व्यासजी के समान ही इच्छा रहित तथा विविध गुण सम्पन्न देखकर समस्त मुनिजन सहसा एक साथ उठकर खड़े हो गये । सभी ने तरह-तरह की अद्भुत कथाओं के सुनने की इच्छा से सूतजी को घेर लिया तब सूतजी ने हाथ जोड़कर विनम्र हो ऋषियों को प्रणाम किया । तब ऋषि बोले- -परम भागवत् सूतजी! आप चिरंजीव हों । आप हमारे बिछाये हुए इस उत्तम आसन पर विराजिये क्योंकि आप बहुत थके हुए हैं, ऐसा अनुरोध कर सभी ऋषीगण अपने-अपने आसनों पर बैठ गये । तब तपोवृद्ध रोम हर्षण के पुत्र श्री सूतजी ऋषियों से आज्ञा लेकर अपने आसन पर बैठ गये । जब सूतजी आसन पर बैठ गये और उनकी थकान दूर हुई तब मुनियों ने पुण्य कथा सुनने के विचार से सूतजी से कहा- हे सूतजी ! आप महा भाग्यवान हैं, क्योंकि आपने गुरु वेदव्यासजी की कृपा से भगवत् रहस्यों को वर्णन करने की शक्ति प्राप्त की है । आप सकुशल तो हैं, न जाने बहुत दिन पश्चात् आज नैमिषारण्य में कैसे आ गये ? आप वेदव्यासजी के शिष्यों में शिरोमणि हम सबके पूज्य हो । हम लोगों ने संसार में सार रूप सहस्रों कथायें सुनी हैं। उनमें भी सार रूप और श्रेयस्कर आपके मन में जो परिणाम में शुभ दायक निश्चित विषय हो जो संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए लोगों को पार लगाने वाला हो । अज्ञान रूपी अन्धकार में ग्रसे हुए लोगों को ज्ञानरूपी मन्त्र देने वाले हे सूतजी ! आप इस संसार रूपी रोगों के नष्ट करने के लिये रसायन के समान उत्तम कथा रूपी सार को हमारे सन्मुख वर्णन कीजिये । जिसमें हरि लीला रूपी रस मिला हुआ और परमानन्द का कारण हो । ऋषियों के ऐसे वचन सुनकर सूतजी हाथ जोड़कर आदर करते हुए बोले हे मुनिजनो ! आप सब मेरा मनोहारी उपाख्यान सुनिये -मैं पहिले पुष्कर नाम के तीर्थ को गया वहाँ स्नान करके देवताओं ऋषियों और पितरों को तर्पण आदि से तप्त किया । पश्चात् जन्म-मरण आदि सब बंधन विनाशिनी यमुना के तट पर गया। वहाँ से क्रमानुसार अन्य तीर्थों में होता हुआ गंगाजी के तट पर आया । फिर काशी होकर गया पहुँचा वहाँ पितरों का श्राद्ध किया । त्रिवेणी और कृष्णा होकर गंडकी में स्नान करता हुआ पुलह मुनि के आश्रम में गया । फिर धेनुमती में स्नान करके सरस्वती के किनारे तीन दिन तक उपवास करके गोदावरी पहुँचा । फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णी, ताप्ती, बैहायसी, नन्दा, नर्मदा और शर्मदा में स्नान करके चर्मणवती होता हुआ सेतुबन्ध रामेश्वर गया वहाँ से बद्रिकाश्रम धाम पहुँचा । वहाँ नारायण का दर्शन कर तपस्वियों को नमस्कार करके फिर नारायण की स्तुति कर सिद्धक्षेत्र आया । इन सभी तीर्थों में भ्रमण करते हुए कुरुक्षेत्र गया वहाँ से जांगल देश होता हुआ मैं हस्तिनापुर पहुँचा । वहाँ पर मैंने सुना महापुण्यवान राजा परीक्षित बहुत से ऋषियों के साथ गंगाजी को जा रहे हैं । उनमें अनेकों सिद्ध योगी और महासिद्ध मुनि थे । कोई निराहारी, कोई केवल वायु भक्षण करने वाला तो कोई पत्तों को खाकर रहने वाला था । कोई केवल स्वास के बल पर ही जीने वाला तो कोई फलाहारी और कोई फेन का आहार करता था । हे विप्रो ! उस समाज में कुछ पूछने की कामना से मैं भी वहाँ गया कि वहीं भगवान मुनिराज व्यासजी के पुत्र महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी आ पहुँचे। जिनका मन भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में लगा हुआ था । उनकी सोलह वर्ष की आयु थी शंख के समान कंठ, लम्बे और चिकने केशों से घिरा हुआ मुख था। शक्तिवान कन्धे, चमकती हुई कांति, अवधूत वेश, ब्रह्म स्वरूप बालकों से घिरे हुए थे जो उन पर थूक रहे थे । स्त्रियाँ धूल फेंक रही थीं जैसे भिनभिनाती मक्खियों से घिरा हुआ हाथी। ऐसे महामुनि शुकदेवजी को धूल से सने हुए देखकर समस्त मुनिगण एक साथ उठकर हाथ जोड़कर खड़े हो गये । इस प्रकार बड़े-बड़े महर्षियों द्वारा उन्हें पूजित देखकर परेशान करने वाली स्त्री और बालक दूर से ही पश्चात्ताप करते हुए उनको प्रणाम कर क्षमा याचना करते हुए तथा पछताते हुए अपने-अपने घर चले गये । तब मुनियों द्वारा बिछाये गये कमल चक्र जैसे ऊँचे श्रेष्ठ आसन पर श्रीशुकदेवजी विराजे । वहाँ व्यास पुत्र ज्ञान रूपी महासागर शुकदेवजी ऋषियों द्वारा पूजे गये ऐसे शोभा पाने लगे जैसे तारागणों के मध्य चंद्रमा ।

जय श्री राधा कृष्णा | पुरषोत्तम भगवान की जय ||

लेखक – अनिल यादव

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