श्रीकृष्ण स्वरूप अधिकमास की स्नान, दान, पुण्य, तप आदि का एवं अधिकमास की छठवे अध्याय की कथा एवं महात्म्य-

छठवां अध्याय- गोलोक में श्री विष्णु का श्री कृष्णा से अधिकमास का दुख वर्णन |

नारदजी बोले – हे पाप रहित ऋषिप्रवर ! विष्णु भगवान ने गोलोक में जाकर क्या किया ? सो कृपा करके मुझसे कहो । श्री नारायण बोले-हे नारद ! अधिमास सहित विष्णु जब गोलोक में गये तब वहाँ जो हुआ सो कहता हूँ, सुनो । गोलोक में मणियों के खम्भों से सुशोभित सुन्दर ज्योतिधाम को विष्णु भगवान ने दूर से ही देखा । उस ज्योतिधाम से इतना प्रकाश निकल रहा था कि भगवान विष्णु की आँखें चकाचौंध हो गईं जिससे उनके नेत्र बन्द हो गये। तब थोड़े-थोड़े नेत्र खोलते हुए अधिमास को अपने पीछे करके धीरे-धीरे चले । भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर के पास पहुँच कर वे अधिमास सहित विष्णु बड़े आनन्दित हुए तब हरि के द्वारपालों ने उठकर उन्हें प्रणाम किया ।

फिर उन्होंने ज्योतिर्मय भगवान के द्वार में अपने मिंचे हुए नेत्रों से ही प्रवेश किया और वहाँ जाकर शीघ्र ही पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार किया । रत्न जड़ित सिंहासन पर गोपियों के बीच में बैठे हुए ऐसे श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़े हुए रमानाथ विष्णुजी हाथ जोड़कर बोले-गुणों से परे, गोविन्द, अद्वितीय अक्षर, अव्यक्त, नाश रहित, विग्रहवान, गोपवेष धारी, बाल्यावस्था वाले, शान्त, गोपीनाथ, मन को हरने वाले, नवीन मेघ के समान श्याम रूप, करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर, बृन्दावन में रासमण्डल में बैठे हुए, पीताम्बरधारी, सौम्यमूर्ति, तिरछी मनोहर आकृति वाले, रास लीला के स्वामी, रासवासी, रासोल्लासित, दो भुजा वाले, हाथ में मुरली धारण करने वाले, पीले वस्त्र पहनने वाले, अच्युत भगवान मुझ पर प्रसन्न होओ। इस प्रकार श्रीकृष्ण महाराज की स्तुति करके तथा नमस्कार करके श्रीविष्णु उनकी आज्ञा से रत्न जड़ित सिंहासन पर विराजमान हो गये । श्रीनारायण बोले- यह विष्णु द्वारा स्तुति किया गया स्तोत्र प्रातःकाल उठकर जो मनुष्य पढ़ेगा उसके सब पाप नष्ट होंगे और खोटे स्वप्न दीखने पर भी अच्छे फल देंगे तथा पुत्र पौत्र की वृद्धि करने वाली गोविन्द की भक्ति प्राप्त होगी । अपकीर्ति का नाश होकर निरन्तर श्रेष्ठ कीर्ति बढ़ेगी । तदनन्दर श्रीकृष्ण के चरणारविंदों में काँपते हुए मलमास से विष्णुजी ने प्रणाम करवाया । तब श्रीकृष्ण भगवान ने पूछा कि यह कौन है, यहाँ किस लिये आया है और क्यों रो रहा है ? इस गोलोक में कोई कष्ट नहीं भोगता । गोलोकवासी सदा आनन्द में मग्न रहते हैं, स्वप्न में भी कोई दुष्ट वार्ता नहीं सुनते । हे विष्णो ! यह मेरे आगे दुःखित नेत्रों से आँसू बहाता हुआ थर-थर काँपता हुआ क्यों खड़ा है ? श्रीनारायण बोले-नवीन मेघ के समान मनोहर श्याम शरीर वाले गोलोक नाथ के वचन सुन, विष्णु भगवान सिंहासन से उठकर आदि से लेकर अन्त तक मलमास के दुःख सुनाने लगे । श्री विष्णु बोले- हे वृन्दावन चन्द्र, हे श्रीकृष्ण ! हे मुरलीधर ! यह मलमास है इसके कष्ट मैं आपके आगे कहता हूँ । इसका कोई अधीश्वर नहीं है इस कारण इसे मैं यहाँ ले आया हूँ । आप इसके दुःख को दूर करो, यह अधिक मास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है, त्याज्य है, अपूज्य है और शुभ कर्मों में सदा वर्जित है, स्वामी रहित होने से इस मास में स्नान दान नहीं करने से सभी वनस्पतियों, लताओं, बारह महीनों ने, कलाओं, काष्ठाओं, क्षणों, उत्तरायन, दक्षिणायन, सम्बत्सरों आदि ने अपने-अपने स्वामियों के गर्व के बल पर इसका अत्यन्त अपमान किया है। इसलिये इस दुःखाग्नि के कारण इसने मरने की ठान ली है। तब अन्य दयालु पुरुषों की प्रेरणा से यह मेरे पास आया है । हे हृषीकेश ! इस शरणार्थी ने काँपते तथा रोते हुए अपने समस्त दुःखों को हमारे सामने खोलकर रख दिया है। इसके महादुःख को आपके बिना अन्य कोई निवारण नहीं कर सकता । इस कारण इस अनाथ को हाथ पकड़कर आपके पास लाया हूँ । आप दूसरों के दुःख को दूर करने वाले हो । अतः इस सन्तप्त को आनन्द युक्त कर दो । हे जगत्पते ! आपके चरण-कमल प्राप्त करके कोई शोकाकुल नहीं रहता, वेद वेत्ताओं का ऐसा वचन मिथ्या कैसे हो सकता है अब इसका दुःख दूर करना आपका कर्तव्य है। मैं सब कामकाज छोड़कर इसे लेकर यहाँ आया हूँ। मेरा आना सफल कीजिये । अपने स्वामी के सन्मुख कोई बात बार-बार नहीं करनी चाहिये, ऐसा नीति शास्त्र के जानने वाले पंडित जन कहते हैं । इस प्रकार अधिमास की सब कष्ट गाथा श्रीकृष्ण भगवान से कहकर विष्णु भगवान हाथ जोड़े श्रीकृष्ण के मुख कमल को खड़े हुए निहारने लगे । ऋषि बोले- हे सूतजी ! आप श्रेष्ठ वक्ता हो आप दीर्घ काल तक जीवित रहें, आप सेवन करने योग्य हो, ताकि हम आपके मुखारविन्द से हरिलीला रूपी कथा अमृत को सदा पीते रहें । हे सूतजी ! विष्णु और श्रीकृष्ण का संवाद विश्व का कल्याणकारी है फिर गोलोक वासी श्रीकृष्ण ने क्या कहा और क्या बताया ? वह कहिये । हे सूतजी ! नारदजी ने नारायण से क्या पूछा ? सो कहें क्योंकि परम भागवत नारदजी के प्रति कहा हुआ नारायण का वचन हम तपस्वियों को परम औषधि है ।

जय श्री राधा कृष्णा | पुरषोत्तम भगवान की जय ||

लेखक – अनिल यादव

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