श्रीकृष्ण स्वरूप अधिकमास की स्नान, दान, पुण्य, तप आदि का एवं अधिकमास की पाँचवे अध्याय की कथा एवं महात्म्य-

पाँचवा अध्याय– श्री विष्णु का अधिक मास को साथ लेकर गोलोक जाना |

नारदजी नारायण से कहने लगे- हे महाभाग ! हे तपोनिधे ! अपने चरणों के पास पड़े हुए अधिमास के वचन सुनकर हरि भगवान उससे बोले-हे निष्पाप नारदजी ! हरि ने जो अधिमास से कहा सो मैं कहता हूँ सुनो, हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो जो मुझसे श्रेष्ठ कथा पूछते हो । श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे अर्जुन ! मैं तुमसे बैकुण्ठ का वृत्तान्त कहता हूँ सो सुनो । श्रीविष्णु के नेत्रों के संकेत से गरुड़जी मूर्च्छित हुए मलमास की पंखों से हवा करने लगे । तब होश आने पर मलमास बोला – हे नाथ ! मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । हे जगदाधार ! हे जगत्पते ! हे विष्णो ! मुझ शरण में आये हुए की “रक्षा करो, रक्षा करो” मुझ शरणागत को क्यों त्यागते हो ? ऐसा कहकर काँपता हुआ बार-बार विलाप करने लगा । तब मलमास से बैकुण्ठवासी हृषीकेश भगवान ने कहा- हे वत्स ! तेरा दुःख निवारण होने का कोई उपाय नहीं दीखता, तू सोच मत कर, उठ तेरा कल्याण होगा। ऐसा कह मन में पल भर में उपाय निकाल कर फिर बोले । श्रीविष्णु भगवान बोले-हे वत्स ! आओ मेरे साथ गोलोक धाम चलो जो योगियों को भी दुर्लभ है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण रहते हैं । वहाँ गोपीगणों के मध्य में बैठे हुए दो भुजा वाले, मुरलीधर, नवीन मेघ के समान श्याम शरीर, कमल जैसे विशाल नेत्र ऐसे ईश्वर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र विराजमान हैं । शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान जिनके मुख की शोभा है करोड़ों कामदेवों की भाँति सलोने, चितचोर, लीला के धाम, पीताम्बर धारी, तुलसी, कुन्द, मन्दार और पारिजात के पुष्पों की माला पहिने, श्रेष्ठ रत्नों के आभूषण पहिने, प्रेम के अलंकार रूप भक्तों पर दया करने वाले, कस्तूरी और केसर युक्त चन्दन से लेपित शरीर, वक्षःस्थल पर श्री वत्स चिन्ह और कौस्तुभमणि एवं भृगु की लात से शोभित हृदय, सिर पर श्रेष्ठ रत्नों से जड़ित मुकुट तथा कानों में कुण्डल पहिने, पार्षदों से घिरे हुए, रत्नों से जड़ित सिंहासन पर बैठे हुए वे ही परब्रह्म पुराण पुरुषोत्तम हैं । स्वेच्छामय ब्रह्माण्ड के बीज, सर्वाधार, परात्पर, निष्काम, निर्विकार, अत्यन्त परिपूर्ण, प्रभु, प्रकृति से परे, ईशान, निर्गुण, नित्यविग्रह, श्रीकृष्ण गोलोक में तेरा दुःख दूर कर देंगे, चलो वहीं चलें । श्रीनारायण बोले- इतना कह हरि भगवान मलमास का हाथ पकड़ गोलोक को ले गये । हे नारद मुनि ! वहाँ पहले अज्ञानरूपी अँधेरे का नाश करने वाले, ज्ञानरूपी मार्ग को दिखाने वाले, प्रलय काल में ज्योति-स्वरूप, करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले, नित्य, असंख्य, विश्व के कारण, विभु, परमात्मा की इच्छामय लाल रंग की ज्योति दिखाई दी । हे मुने ! उस ज्योति के भीतर ही सुन्दर तीन लोक थे उसके ऊपर सनातन ब्रह्मलोक की भाँति “गोलोक” है। वह तीन करोड़ योजन में फैला हुआ है। मण्डलाकार तेजपुञ्ज स्वरूप, श्रेष्ठ रत्नों वाली भूमि से युक्त है, जो बड़े-बड़े योगियों को स्वप्न में भी अदृश्य है, वही वैष्णवों को दृश्य और प्राप्त है। उसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग द्वारा धारण कर रखा है, ऐसा श्रेष्ठ गोलोक अन्तरिक्ष में स्थित है और आधि (मानसिक चिन्ता), व्याधि (शारीरिक रोग) बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है । बहुमूल्य रत्नों से जड़ित करोड़ों मन्दिरों से सुशोभित है । उस गोलोक के नीचे दाहिनी ओर बैकुण्ठ लोक है और बाईं ओर बैकुण्ठ के समान ही आकार वाला शिव लोक है। बैकुण्ठ का फैलाव एक करोड़ योजन में है और उसका आकार जिसमें करोड़ योजन लम्बा और मण्डलाकार है वहाँ पीले वस्त्रों से शोभायमान वैष्णवजन रहते हैं । वे वैष्णव शंख, चक्र, गदा और पद्मधारी लक्ष्मीजी के साथ चतुर्भुज रूप में रहते हैं और बैकुण्ठ की स्त्रियाँ लक्ष्मीजी के समान, सुन्दर हैं उनके चलने से पायजेब और करधनी की झंकार बड़ी प्यारी होती है । गोलोक के बाईं ओर जो शिव लोक है वहाँ प्रलय नहीं होता और सृष्टि काल में पार्षद लोग रहते हैं वह एक करोड़ योजन में फैला हुआ है। वहाँ महादेवजी के गण सारे शरीर में भस्म रमाये सर्पों के जनेऊ पहरे, ललाट पर अर्द्धचन्द्र धारे, हाथ में शूल, पट्टिश लिये, जटाओं में गंगा धारण किये हुए तीन नेत्र वाले पराक्रमी शूरवीर रहते हैं । गोलोक में निरन्तर परमानन्द कारक परम हर्ष को करने वाली, अत्यन्त मनोहर एक महान ज्योति है । उस ज्योति में अत्यन्त सुन्दर एक रूप है जो नील कमल के समान श्यामवर्ण, कमल के समान लाल नेत्र, आनन्द जनक, निराकार, परे से भी परे जिसका योगीजन अपने ज्ञानचक्षुओं से निरन्तर ध्यान करते रहते हैं। करोड़ों शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान अत्यन्त दीप्तिमान मुख, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर, लीला के स्थल, दो भुजाधारी, मुरलीधर, मधुर मुस्कान युक्त, पीले वस्त्र पहिने श्रीवत्स चिन्ह, भृगु की लात और कौस्तुभमणि से सुशोभित हृदय, करोड़ों श्रेष्ठ रत्नों से जड़ित मुकुट और कंकणों से शोभित रत्नों सिंहासन पर बैठे हुए तुलसी, कुन्द, मन्दार, पारिजात और चम्पा के फूलों की माला से शोभायमान हैं, वे ही परब्रह्म श्रीकृष्णजी हैं । जो स्वेच्छामय सब के कारण रूप, सर्वाधार, बाल्यावस्था वाले, गोपाल रूपधारी, करोड़ों पूर्ण चन्द्रमा के समान शोभायमान, भक्तजनों पर अनुग्रह करने वाले, इच्छा रहित, निर्विकार, अत्यन्त परिपूर्ण प्रभु, रासमण्डल के मध्य में बैठे हुए शांत, रासेश्वर हरि, मंगलरूप, पूजने योग्य, मंगलों में मंगल, परमानन्द घन, सत्य स्वरूप, अक्षर, अव्यय, सब सिद्धियों के ईश्वर, सब सिद्धि स्वरूप और सिद्धि के देने वाले, प्रकृति से परे, ईशान, निर्गुण, नित्य विग्रह, सबके आदि पुरुष, अव्यक्त, इन्द्र आदि देवों द्वारा स्तुति किये गये, नित्य स्वतन्त्र, एक परमात्मा स्वरूप, शांति परायण ऐसे प्रभु का शांत स्वभाव वाले वैष्णवजन ध्यान करते हैं। केवल उत्कृष्ट रूप एक भगवान ने ही धारण किया है। यह कहकर विष्णु भगवान अधिमास को रजोगुण से घिरा हुआ जानकर गोलोक को ले गये । सूतजी बोले- सत्कर्म ग्रहण करने वाली वाणी कहकर जब नारायण चुप हो गये तब नारदजी पुरुषोत्तम मास महा उत्सव सम्बन्धी नई-नई कथा सुनने की अभिलाषा से नारायण से बोले-

जय श्री राधा कृष्णा | पुरषोत्तम भगवान की जय ||

लेखक – अनिल यादव

 

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