भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ अपनी प्राणप्रिया जनकदुलारी की चिन्ता करते हुऐ प्रवर्षणगिरि पर वार्षाके दिन व्यतीत करने लगे और कपिराज सुग्रीव धन-सम्पत्ति, राज्य एवं अपनी पत्नी रूमा के साथ अनिन्द्य सुन्दरी तारा को प्राप्त कर अत्यन्त प्रमुदित थे। वे राज्य-सुख में इतने तन्मय हुए कि उन्हें अपने हितैषी सानुज श्री रघुनाथजी की मैत्री, उनका उपकार तथा उनके प्रति अपने दायित्व का ध्यान भी नहीं रह गया। किन्तु पवनपुत्र हनुमान शास्त्र के निश्चित सिद्धान्त को जानने वाले थे; कर्तव्याकर्तव्य का उन्हें याथार्थ ज्ञान था। वार्तालाप की कलामें सुपटु श्रीहनुमानजी सदा सजग और सावधान रहने वाले परम बुद्धिमान् सचिव थे। जगदम्बा जानकी का पता लगाने के लिये वे अतिशय व्यग्र थे।

जब हनुमानजी ने देखा कि आकाश स्वच्छ हो गया, नदियों में निर्मल जल बहने लगा, मार्ग यात्रा के योग्य हो गये, किंतु वानरराज सुग्रीव अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर धर्म और अर्थ के संग्रह में उदासीन हो चले हैं; वे अभिलाषित मनोरथों को

प्राप्त कर स्वच्छाचारी से हो रहे हैं, तब उन्होंने सुग्रीव के समीप जाकर सत्य, प्रिय एवं हितप्रद वचन कहे-

राज्यं प्राप्तं अशश्चैव कौली श्रीरभिवर्धिता।।
मित्राणां संग्रहः शेषस्तद् भवान् कर्तुमर्हति।
तद् भवान् वृत्तसम्पन्नः स्थितः पथि निरत्यये।
मित्रार्थमभिनीतार्थं यथावत् कर्तुमर्हति।।
तदिदं मित्रकायात्र्रं नः कालातीतमरिंदम।
क्रियतां राघवस्यैतद् वैदेहयाः परिमार्गणम्।।
न च कालमतीतं ते निवेदयति कालवित्।
त्वरमाणोऽपि स प्राज्ञस्तव राजन् वशानुगः।।
नहि तावद् भवेत् कालो व्यतीतश्चोदनादृते।
चदितस्य हि कार्यस्य भवेत् कालव्यतिक्रमः।।
शक्तिमाननिविक्रान्तो वानरक्र्षगणेश्वर।
कर्त दाशरथेः प्रीतिमाज्ञायां किं नु सज्जसे।।
प्राणत्यागविशकेन कृतं तेन महत् प्रियम्।
तस्य मार्गाम वैदेहीं प्रथिव्यापपि चाम्बरे।।
देवदानवगन्धर्वा असुराः समरूदगणाः।
न च यक्षा भयं तस्य कुर्युः किमिव राक्षसाः।।
वदेवं शक्तियुक्तस्य पूर्वं प्रतिकृतस्तथाः।।
वदेवं शक्तियुक्तस्य पूर्वं प्रतिकृतस्तथा।
रामस्यार्हसि पिंगेश कर्तुं सवात्मना प्रियम्।।
(वाल्मीकि रामायण)

‘राजन्! आपने राज्य और यश प्राप्त कर लिया तथा कुल-परम्परा से आयी हुई लक्ष्मी को भी बढ़ाया, किंतु अभी मित्रों को अपनाने का कार्य शेष रह गया है, उसे आपको इस समय पूर्ण करना चाहिये।आप सदाचार-सम्पन्न और नित्य सनातन धर्म के मार्ग पर स्थित हैं; अतः मित्र के कार्य को सफल बनाने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसे यथोचितरूप से पूर्ण कीजिये। शत्रुदमन! भगवान् श्रीराम हमारे परम सृहृद् हैं। उनके कार्य का समय बीता जा रहा है; अतः विदेहकुमारी सीता की खोज आरम्भ कर देनी चाहिये। राजन्! परम बुद्धिमान् श्रीराम समय का ज्ञान रखते हैं और उन्हें अपने कार्यकी सिद्धि के लिये जल्दी लगी हुई है तो भी वे आपके अधीन बने हुए हैं। संकोचवश आपसे नहीं कहते कि मेरे कार्य का समय बीत रहा हैै। यदि हमलोग श्रीरामचन्द्रजी के कहने के पहले ही कार्य प्रारम्भ कर दें तो समय बीता हुआ नहीं जाना जायगा; किंतु यदि उन्हें इसके लिये प्रेरणा करनी पड़ी तो यही समझा जायगा कि हमने समय बिता दिया है- उनके कार्य में बहुत विलम्ब कर दिया है।वानर और भालू-समुदाय के स्वामी सग्रीव! आप शक्तिमान् और अत्यन्त पराक्रमी हैं, फिर भी दशरथनन्दन श्रीराम का प्रिय कार्य करने के लिये वानरों को आज्ञा देने में बिलम्ब क्यों करतेे हैं? श्रीरघुनाथजी को आपके लिये वाली के प्राणतक लेने में हिचक नहीं हुई; वे आपका बहुत बड़ा प्रिय कार्य कर चुके हैं; अतः हमलोग उनकी पत्नी विदेहकुमारी सीता का इस भूतलपर और आकाश में भी पता लगावें। देवता, दानव, गन्दर्व, असुर, मरूदगण तथा यक्ष़्ा भी श्रीराम को भय नहीं पहुँचा सकते, फिर राक्षसों की तो बिसात ही क्या है? वानरराज! ऐसे शक्तिशाली तथा पहले ही उपकार करनेवाले भगवान् श्रीराम का प्रिय कार्य आपको अपनी सारी शक्ति लगाकर करना चाहिये।’

सत्वगुण-सम्पन्न वानरराज सुग्रीव श्रीराम के कार्य में विलम्ब हो जाने के कारण भयग्रस्त हो गये। वे सदा ही समीरकुमार के परामर्श का आदर करते थे। प्रीतिपूर्वक कर्तव्य की सत्प्रेरणासे प्रसन्न होकर उन्होंने तुरंत नील नामक वानर-वीर को आज्ञा प्रदान की-‘तुम पंद्रह दिनों में मेरे समस्त उद्योगी एवं शीघ्रगामी यूथपतियों तथा समस्त वीर सैनिकों को मेरे समीप उपस्थित करने का प्रयत्न करो। यह मेरा सुनिश्चित निर्णय है कि इस अवधि के बाद यहाँ पहुँचनेवाले वीर वानरको अपने प्राणों से हाथ धोना पडे़गा।’
उधर वर्षा के उपरान्त शरत् ! का आगमन हो जाने पर भी सग्रीव को निश्चिन्त एवं निष्क्रिय समझकर भगवान श्रीराम ने क्षुब्ध होकर अपने अनुज से कहा-‘‘भाई लक्ष्मण! वानरराज सुग्रीवने सीताकी खोज का समय निश्चित कर दिया था, किंतु अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर वह दुर्बुद्धि वानर मेरी उपेक्षा कर रहा है। वह मुझे राज्य में भ्रष्ट, दीन, अनाथ और शरणागत समझकर मेरा तिरस्कार कर रहा है। अतएव तुम जाकर स्पष्ट शब्दों में उससे कह दो-‘जो बल-पराक्रम से सम्पन्न तथा पहले ही उपकार करनेवाले कार्यार्थी पुरूषों को प्रतिज्ञापूर्वक आश देकर पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसार के सभी पुरूषों में नीच है। जो अपने मुख से प्रतिज्ञा के रूप में निकले हुए भले बुरे-सभी तरह के बचनों को अवश्य पालनीय समझकर सत्य की रक्षा के उद्देश्य से उनका पालन करता है, वह वीर समस्त पुरूषों में श्रेष्ठ माना जाता है।’

भगवान श्रीराम ने दुःखी हृदय से अपने अनुज से आगे कहा-‘उस दुरात्मा से कह दो, मेरे शरसे मारा गया वाली जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग बंद नहीं हुआ है। उस समय तो अकेले वाली को ही मैने मारा था, किंतु यदि तुमने अपने वचनका पालन नहीं किया तो मैं तुम्हें बन्धु-बान्धवों सहित काल के हवाले कर दूँगा।’

अपने ज्येष्ठ भाई श्रीराम के वचन सुनते ही सुमित्रानन्दन रोष में भर गये। उन्होंने प्रभु के चरणों में प्रणाम कर निवदेन किया-‘विषय-भोग में आसक्त बुद्धिहीन वानर ने अग्निदेवकी साक्षी में मैत्री स्थापित की; किंतु स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर उसकी नीयत बदल गयी है। मैं मित्यावादी सुग्रीव को अभी मारकर अंगदको राज्याभिषिक्त करता हूँ। अब वे ही राजा होकर वानर वीरों के द्वारा सीतादेवी का पता लगायें।’

धनुष-वाण हाथ में लिये क्रुद्ध लक्ष्मणको सुग्रीव वधके लिये प्रस्थान करते देखकर अत्यन्त धीर एवं गम्भीर मर्यादापुरूषोत्तम श्रीराम ने उन्हें समझाते हुए कहा-‘लक्ष्मण ! तुम्हारे-जैसे श्रेष्ठ वीर पुरूष को मित्र-वध का निषिद्ध कर्म करना उचित नहीं। जो उत्तम विवेक के द्वारा अपने क्रोध को मार देता है, वह वीर समस्त पुरूषों में श्रेष्ठ है। वत्स! सुग्रीव मेरा मित्र है, तुम उसे मारना मत। केवल यह कहकर कि ‘तू भी वाली के समान मारा जायगा’ उसे डराना और शीघ्र ही उसका उत्तर लेकर आ जाना।’
‘जैसी आज्ञा!’ इक्ष्वाकुकुल-सिंह वीरवर सुमित्रानन्दन ने श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया और अपने भयंकर धनुष-वाण को हाथ में लिये वे किष्किन्धा के लिये चल पड़े। उस समय क्रोध के कारण उनकी आकृति अत्यन्त भयावह हो गयी थी उनके अधर फड़क रहे थे। लक्ष्मण अत्यधिक रोष के कारण मार्ग के वृक्षों को गिराते और पर्वत-शिखरों को उठा-उठाकर दूर फेंकते जा रहे थे। उस समय वे प्रत्यक्ष काल-से प्रतीत हो रहे थे।

किष्किन्धा के समीप पहुँचकर श्रीरामानुज ने अपने धनुष की प्रत्यंच्चा का भयंकर टंकार किया। उस समय कुछ सामान्य वानर नगरके परकोटे पर अपने हाथ में पत्थर और वृ़क्ष लेकर किलकारी मारने लगे। कुपित लक्ष्मण की क्रोधाग्नि में जैसे घृताहुति पड़ गयी। प्रज्जवलित प्रलयाग्नि-तुल्य लक्ष्मणने अपने विशाल धनुष पर भयानक वाण चढ़ाया ही था कि किष्किन्धाके समस्त वानर वीर काँप उठे। लक्ष्मण किष्किन्धा का मूलोच्छेद करने के लिये प्रस्तुत हो गये।

नगर-निवासियों को अत्यधिक आकुल देख युवराज अंगद ने लक्ष्मणजी के समीप पहुँचकर अत्यन्त आदरपूर्वक उनके चरणों में शीश झुकाया। उनको देखते ही अन्यतम भ्रातृभक्त लक्ष्मण का रोष शान्त हो गया। उन्होेंने युवराज को अपने हृदय से लगाकर कहा-‘वत्स! तुम यथाशीघ्र सग्रीव के समीप जाकर कहो कि श्रीराघवेन्द्र तुम पर कुपित हैं और उन्हीं की प्रेरणा से मैं यहाँ आया हूँ।’

‘बहुत अच्छा!’-अंगद ने विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर विदा ली और सुग्रीव के समीप पहुँचे। अंगद के द्वारा श्री लक्ष्मणजी के रोष की बात ज्ञात होते ही सुग्रीव भयाक्रान्त हो गये। उन्होंने तत्काल श्रीरामानुज को अनुकूल बनाने के लिये पवनकुमार को भेजा।

हनुमानजी ने श्री लक्ष्मण के समीप जाकर उनके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और फिर उन्होंने अत्यन्त विनयपूर्वक कहा-

एहि वीर महाभाग भवद्गृहमशकिन्तम्।।
प्रविश्य राजदारादीन् दृष्टवा सुग्रीवमेव च।
यदाज्ञापयसे पश्चात् तत् सर्वं करवाणि भोः।।
(अध्यात्म रामायण)

‘है महाभाग वीरवर! निःशंक होकर आइये, यह घर आपका ही है। इसमें पधारकर राजमहिषियों और महाराज सग्रीव से मिलिये। फिर आपकी जो आज्ञा होगी, हम वही करेंगे।’

पवनकुमार हनुमानजी अत्यन्त भक्तिपूर्वक श्रीरामानुज का कर-कमल पकड़कर उन्हें नगर के बीच में राज-सदन ले चले। मधुरभाषिणी ताराने लक्ष्मण का स्वागत करते हुए कहा-‘आपके कार्य के लिये सग्रीव स्वयं चिन्तित हैं। आप कृपापूर्वक अन्तःपुर में पधारकर उन्हें अभय-दान दें।’

अन्तःपुरमें भयभीत सग्रीव ने अपनी पत्नी रूमा सहित लक्ष्मणजी के चरणों में प्रणाम किया। वहाँ भी क्रुद्ध लक्ष्मण से नीति-निपुण समीरात्मज ने कहा-

त्वत्तोऽधिकतरो रामे भक्तोऽयं वानराधिपः।।
रामकार्यार्थमरिनशं जागर्ति न तु विमृतः।
आगताः परितः प्श्य वानराः कोटिशः प्रभो।।
गमिष्यन्त्यचिणैव सीतायाः परिमार्गणम्।
साधयिष्यति सग्रीवो रामकार्यमशेषतः।।
(अध्यात्म रामायण)

‘महाराज! ये वानरराज श्रीरामचन्द्रजी के आपसे भी अधिक भक्त हैं। भगवान् श्रीराम के कार्य के लिये ये रात-दिन जागते रहते हैं; ये उसे भूल नहीं गये हैं। प्रभो! देखिये, ये करोड़ों वानर इसीलिये सब ओर से आ रहे हैं। ये सब शीघ्र ही सीताजी की खोज के लिय जायँगे और महाराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र जी का सब कार्य भली प्रकार सिद्ध करेंगे।’

तदनन्तर वानरराज सुग्रीव ने सुमित्राकुमार के चरणों में प्रणाम कर अत्यन्त विनीत वाणी में कहा-‘प्रभो! मैं श्रीरामचन्द्रजी का दास हूँ उन्हेंने ही मेरे प्राणों की रक्षा की है और यह धन, वैभव एवं राज्यादि सब कुछ उन्हीं का दिया हुआ है। वे प्रभु तो स्वयं त्रिभुवन को परास्त कर सकते हैं। मैं तो उनके कार्य में सहायकमात्र होऊँगा। मैं विषयी पामर पशु सर्वथा आपका हूँ। अतएव आप मेरा अपराध क्षमा करें।’

सुग्रीव की प्रार्थना सुनते ही सुमित्रानन्दन ने उनकी भुजा पकड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेमपूर्वक उनसे कहा-‘महाभाग! मैंने भी प्रणय-कोपवश आपको जो कुछ कहा है, उसका विचार मत कीजिये। भगवान् श्रीराम अरण्य में एकाकी हैं और श्रीसीताजी के वियोग में व्याकुल हो रहे हैं। अतएव अब शीघ्र उनके समीप चला जाय।’
‘हाँ, अवश्य चला जाय।’ सुग्रीव ने पाद्याध्र्यादि से लक्ष्मण जी की पूजा की और फिर वे उनके साथ स्वयं श्रेष्ठ रथ में बैठे। सुग्रीव के साथ अंगद, नील और पवनकुमार आदि मुख्य-मुख्य वानर भी श्रीरघुनाथजी के समीप चले। उस समय भेरी, मृदंग आदि नाना प्रकार के वाद्य बजने लगे।

सारांस यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने बचन का पालन समय से करना चाहिये और मित्रता निस्वार्थ निभानी चाहिये। क्यों कि भगवान सब देख रहे हैं।

 समस्त पाठकबंधुओं को मेरा जय सियाराम जय हनुमान।

लेखक-अनिल यादव।

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