श्रीकृष्ण स्वरूप अधिकमास की स्नान, दान, पुण्य, तप आदि का एवं अधिकमास की दसवें अध्याय की कथा एवं महात्म्य-

दसवाँ अध्याय- दुर्वासा का उल्लेघन कर ऋषि कान्या द्वारा शिव की आराधना |

नारदजी बोले – हे तपोनिधे ! महातेजस्वी क्रोधी दुर्वासा ने विचारकर ऋषि कन्या को क्या हितकारी उपाय बतलाया ? सो मुझसे कहो । सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! नारद का प्रश्न सुनकर श्रीनारायण बोले-हे नारद! सुनो मेधावी ऋषि की पुत्री का दुःख दूर करने के लिये कृपालु मुनि ने जो गुप्त उपाय कहा वह मैं कहता हूँ । दुर्वासा बोले-हे सुन्दरी ! सुन, गुप्त से भी गुप्त एक उपाय मैं तुझसे कहता हूँ जो किसी से कहने योग्य नहीं है परन्तु तुझसे विस्तार पूर्वक न कहकर संक्षेप में कहता हूँ । हे सुभगे ! इस मास से जो तीसरा मास आयेगा वह पुरुषोत्तम मास है। हे रमणी ! उस मास में तीर्थ में स्नान कर लेने से मनुष्य भ्रूण हत्या के पाप से भी छूट जाता है । इसकी कार्तिकादि बारहों महीने तुलना नहीं कर सकते । सब मास, पक्ष और जितने पर्व दिवस हैं वे सब पुरुषोत्तम मास की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं । वेद में जितने साधन और जितने परम पद प्राप्ति के जो साधन कहे हैं, वे भी उसकी सोलहवीं कला के बराबर नहीं हैं । बारह हजार वर्ष तक गंगा स्नान करने से और सिंह की वृहस्पति में गोदावरी में एक बार स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है । हे सुन्दरी ! वही फल कहीं भी एक बार पुरुषोत्तम मास में स्नान कर लेने से प्राप्त हो जाता है । श्रीकृष्ण के प्रिय इस पुरुषोत्तम मास में स्नान दान जपादि करने से सब मनावांछित फल प्राप्त होते हैं इसलिये तुम शीघ्र ही पुरुषोत्तम मास की आराधना शुरू कर दो, मैंने भी इसका सेवन किया है । हे बाले ! एक समय की बात है कि मैंने क्रोधित होकर राजा अम्बरीय को भस्म करने के लिये कृत्या नाम की राक्षसी भेजी थी, तब हरि भगवान ने अपना तेजोमय जलता हुआ चक्र मुझे ही भस्म करने को मेरे पीछे भेज दिया परन्तु मेरे पुरुषोत्तम मास के व्रत करने से सुदर्शन चक्र वापस चला गया । हे सुन्दरी ! उस चक्र में त्रिलोकी को भस्म कर देने की शक्ति है परन्तु वह मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सका तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । हे सुभगे ! इससे तुम श्रीमान् पुरुषोत्तम मास का सेवन करो तुम्हारे दुर्भाग्य के दिन फिर जायेंगे । मुनिराज मुनिकन्या से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब श्रीकृष्ण बोले- हेयुधिष्ठिर ! दुर्वासा के वचन सुन होनहार के वश वह मूर्ख मुनि बाला मन में क्रोधकर मुनि श्रेष्ठ दुर्वासा से बोली- हे ब्रह्मन् ! हे मुनिवर ! आपका कथन मुझको अच्छा नहीं लगा । क्या माघ आदि निःसार हो गये, क्या कार्तिक मास का महत्व कम हो गया ? यह समझाकर बताइये, क्या वैशाख मास इच्छित फल नहीं देता, क्या सदाशिव से लेकर जितने देवता हैं वे आराधना करने से इच्छा फल नहीं देते ? पृथ्वी पर सूर्य देवता जिनके प्रत्यक्ष दर्शन हैं वे तथा अम्बिका देवी मनोरथ पूरा नहीं करतीं ? व्यतीपातादि योग और शिवादि देवताओं का उल्लंघन करके पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा करते हुए क्या आपको लज्जा नहीं आती ? यह मलिन मास तो सब कर्मों में निंदित है । हे मुने ! सूर्य संक्रांति रहित मलमास को आप श्रेष्ठ कैसे कहते हो, मैं सब दुःखों से पार करने वाले श्रीहरि को जानती हूँ । हे भूदेव ! मैं रात-दिन विचार कर यह देखती हूँ कि जानकी जीवन राम और पार्वती पति शंकर से बड़ा अन्य कोई देवता नहीं है। जो मेरा दुःख दूर कर सके । हे विपेन्द्र ! हे मुने ! मैं इनको छोड़ मल मास की क्यों पूजा आराधना करूँ ? ब्राह्मण पुत्री के मुख से यह सुनकर क्रोधी मुनि का शरीर क्रोध से जलने लगा, नेत्र लाल हो गये, तो भी दयार्द्र होकर मित्र की पुत्री को शाप नहीं दिया, सोचने लगे यह मूढ़ बुद्धि हीन अपना हित अनहित को नहीं जानती । पुरुषोत्तम माहात्म्य को पंडित लोग भी नहीं जानते फिर कम बुद्धि वाले पुरुष और विशेष करके कुमारी कन्या कैसे जाने ? यह बिना माता-पिता की अनाथ बालिका दुःख रूपी अग्नि से तपित है यह मेरा अत्यन्त उग्र शाप कैसे सहेगी ? यह सोचकर मन में दया आने के कारण क्रोध को दूर करते हुए मुनि शांत चित्त हो उस कन्या से बोले-अरी अबोध बालिका ! मित्र की कन्या होने के कारण मैं तुझ पर कुपित नहीं हूँ तुझे जो अच्छा लगे वही कर । हे बाले ! मैं तुझे कुछ भविष्य की बता रहा हूँ उसे सुन, तूने जो पुरुषोत्तम मास का निरादर किया है। उसका फल तुझे अवश्य मिलेगा चाहे इस जन्म में मिले या अगले जन्म में मिले । अब मैं नर-नारायण के आश्रम बद्रीनाथ धाम को जाता हूँ । हे भीरु ! तू अपने अल्हड़ स्वभाव के कारण अपना भला बुरा नहीं सोच रही है मेरा यहाँ बहुत समय बीत गया । शुभ अशुभ होनहार को कोई मिटा नहीं सकता मैं जा रहा हूँ, तेरा कल्याण हो । श्रीकृष्णजी बोले- ऐसा कहकर महाक्रोधी तपस्वी मुनि तुरन्त चले गये । पुरुषोत्तम मास का अनादर करने के कारण वह कन्या उसी क्षण कांतिहीन हो गई। उसने विचार किया कि मैं तत्काल फलदाता पार्वती पति देवेश शिव-शंकर की तपस्या द्वारा आराधना करूँगी । हेराजन् ! मेधावी ऋषि की पुत्री मन में ऐसा निश्चय करके अपने आश्रम में ही रहकर शिवजी का महा कठिन तप करने को तैयार हुई । सूतजी बोले- वह बाला मुनि के प्रबल वचन त्यागकर समस्त फल के देने वाले लक्ष्मी-नारायण की उपासना को छोड़कर तथा सावित्री-पति ब्रह्मा को छोड़कर केवल शंकरजी की पूजा करने लगी । 

जय श्री राधा कृष्णा | पुरषोत्तम भगवान की जय ||

लेखक – अनिल यादव

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