hanuman ji sita ji

(How did Hanuman ji find Sita ji- The untold truth)

डाॅ0 आनन्द जी की(The meaning of Hanuman and Sita is different from the meaning of the mythological anecdote.) आध्यात्मिक मन की यात्रा में श्री हनुमान जी के, माता सीता शोध के रहस्य का अर्थ, पौराणिक समय के अनुसार जिस प्रकार अपनी व्याख्या में किया गया वह एकदम अलग (भिन्न) है। चलिये अब मैं इस महत्वपूर्ण यात्रा का दर्शन आप लोगों को एक सरल भाषा के साथ-साथ नये अन्दाज में श्री हनुमान जी माहराज की प्रेरणा से कराने जा रहा हॅू। कृपया अपना सारा ध्यान इस लेख को पढ़ते समय श्री हनुमान जी को याद करते हुये शान्ति और शक्ति देने वाली माता सीता, प्रभु श्री राम के चरणों में समर्पित करके यह लेख पढियें, इस लेख से आपको अत्यन्त लाभ होगा – परिवार में सुख शान्ति समृद्धि आयेगी।


श्री हनुमानजी इस अन्तर्यात्रा में एक यात्री (Passenger) हैं और माता सीता यात्रा का अन्तिम लक्ष्य (The ultimate goal.) हैं। यदि श्री हनुमानजी ’साधक’ हैं तो माता सीताजी ’साध्य’ है । यदि श्री हनुमान ’योगी’ हैं तो माता सीता योगीका लक्ष्य ’योग’ हैं। अन्तः पथ (जीवन का रास्ता) के यात्री श्री हनुमान का पाथेय (जीवन के रास्ते में साथ रखने वाला भोजन) ज्ञान है। श्री हनुमानजी वैराग्य हैं। ज्ञान का पाथेय लेकर वैराग्य द्वारा शन्ति-शोध में प्रवृत्त होना ही श्री हनुमान जी द्वारा माता सीता शोध किया जाना है।


’वैराग्य’ के बिना कर्म, ज्ञान एवं उपासना-तीनों अपूर्ण हैं (Karma, knowledge and worship all three are incomplete without disinterest)। वैराग्य ही कर्म को भक्ति के पास, भक्ति को ज्ञान के पास एवं ज्ञान को शान्ति के पास पहुॅंचाता है। श्री हनुमान जी वैराग्य-साधना के प्रतीक हैं एवं वैराग्यस्वरूप हैं-


’प्रबल वैराग्य दारून प्रभंजन तनय,

विषम-वन भवनमिव धूमकेतू’
(विनय पत्रिका 58/8)
’जयति धर्मार्थ-कामापवर्गद बिभो,

ब्रम्हलोकादि-वैभव-विरागी।’
(विनय पत्रिका 29/2)


’वैराग्य’ क्या है ? महर्षि पतंजलि वैराग्य पर गम्भीर मनन और विचार करते हुये कहते हैं- ‘‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् (योगदर्शन 1/15)- दिखाई पड़़ने वाला एवं जिसे पंरपरानुसार सुनते आए हों एसे भोगों से मन को हटाकर अपने चित्तको पूर्ण रूप से वश में कर लेना ही ‘वैराग्य‘ है। गुणों से अनासक्ति ही ‘वैराग्य‘ है। ‘‘ज्ञान की चरम सीमा ही ‘वैराग्य‘ है (Dispassion is the ultimate limit of knowledge)यहाॅ तक बात समझ आगई होगी। अब आगे देखों-


ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्।‘‘ (योगाभाष्य 1/16) वैराग्य हो जाने के ठीक वाद (कैवल्य) जन्म मरण से मुक्त हो जाने की प्राप्ति हो जाती है-‘एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति।‘ (योगाभाष्य 1/16) श्री हनुमानजी को परम विरागी होने के कारण ही ‘ज्ञानिनामग्रगण्यम्‘ कहा गया है; क्योंकि ज्ञान की पराकाष्ठा ‘वैराग्य’ है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ‘‘तत्परं पुरूषख्यातेर्गुण-वैतृष्ण्यम्। (योगाभाष्य 1/16)-प्रकृति यानि भौतिक जगत या ब्रह्माण्य में-पुरूषान्यताख्याति से गुण-वैतृष्ण्यका आविर्भाव होना ही ‘पर वैराग्य’ है।’’


योगियों का परम प्राप्तव्य ‘योग’ है। इस योग की प्राप्ति के दो साधन हैं- (1) अभ्यास और (2) वैराग्य। अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्ति-निरोध की प्राप्ति होती है ( The ultimate Mind control can be achieved by practice and detachment.)-


‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः’(यो0सू0 1/12)‘योगऋित्तवृत्तिनिरोधः।।’(यो0सू0 1/2)
योग का मूल वैराग्य है। वैराग्य ही योग का परम साधन है। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में जिन्हें ब्रह्म से एकीभाव प्राप्त करने का अधिकारी बताया है, उनमें वैराग्य-सम्पन्न व्यक्ति की भी गणना की है- ‘ध्यानयोगपरोनित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।’ (18/52) वैराग्य का लक्ष्य शान्ति है। उसका मार्ग ज्ञान है उसका कर्तव्य कर्म शोध है। समस्त प्राणियों का एक मात्र लक्ष्य ‘शान्ति’ है। श्री रामोपाख्यान में माता सीता ही शान्ति हैं। जहाॅं शान्ति होगी, वहीं पूर्णता होगी और जहाॅं पूर्णता होगी वहीं एकरस अखण्ड एवं कभी खत्म न होने वाला आनन्द होगा। अतः शान्ति समस्त प्राणियों का नैसर्गित एवं प्रतिक्षण प्रवृत्त व्यापार है; क्योंकि उसके बिना सुख कहाॅं –


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्यस्य कुतःसुखम्।।
(गीता 2/66)


शान्तिरूपिणी माता सीता जब जनकपुरी में महाराज जनक के यहाॅं अवतरित हुई, तब उनके प्राप्त्यर्थ श्री राम जी को अनामन्त्रित होने पर भी पद यात्री करनी पड़ी। उन्हें अपनी शान्ति स्वरूपा श्री सीता के लिये ‘भव-चाप’ तोड़ना पड़ा- ‘भंजेउ राम आपु भव चापू।।’ भव-चाप को तोड़े बिना ब्रह्म को शान्ति नहीं मिली। भव-समुद्र को लाॅंघे बिना श्री हनुमान को भी माता सीतारूपी शान्ति नहीं मिलीं।
प्रवृत्तिस्वरूप लंका में मोहरूपी राजा रावण राज्य किया करता है। वहीं शान्ति का अपहरण करने वाला है। समस्त संसार मोह-निशा में सोता है, किंतु योगी इसमें भी जागता रहता और अपनी अन्तर्यात्रा प्रवृत्त रहता है-

मोह निसाॅं सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।

(मानस 2/93। 2-3)
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।

(गीता 2/69)

श्री हनुमान सीता-शोध के लिये इसी निशा में यात्रा करते हैं; क्योंकि योगी के लिये संसार की रात्रि ही दिन है एवं संसार का दिन ही रात्रि।


योगी की यात्रा गोपनीय होती है; क्योंकि वह वैराग्यस्वरूप होने के कारण आत्मविज्ञापन नहीं करना चाहता; कारण, यह योग-मार्ग के लिये प्रत्यूह (वाधा) है। इसलिये श्री हनुमान ही रात्रि में यात्रा करते हैं- ‘अति लघु रूप धराॅै निसि नगर कराॅै पइसार।।’ हनुमानजी सीता शोध हेतु रात्रि में यात्रा करना, साधक के लिये अन्तर्साधनाको पूर्णता गोपनीय रखना एवं ‘जग-जामिनी’ में सदा जाग्रत् रहने का संकेत है। श्री तुलसीदास जी भी यही संकेत करते है-

जागु, जागु, जीव जड़। जो है जग जामिनी।
छेह-गेह-नेह जानि जैसे घन दामिनी।।

(विनय-पत्रिका 73/1)
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जनिअ तबहिं जीवन जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा।।

(मानस 2/93।3-4)

प्राकृत पुरूषों की बात कौन कहे, स्वतः ब्रह्म श्री राम जी को भी अपहृत शान्ति-सीता के लिये विरह विदग्ध स्वरमें विलाप करना पड़ा। ‘हा गुन खानि जानकी सीता’ इत्यादि।


ज्ञानियों में अग्रणी एवं सर्वोच्च योगी महाराज जनक को शान्ति के शोध के लिये क्लिष्ट-कर्म (हल-चालन) करना पड़ा। शान्ति राज-शोध में नहीं मिली, अतः घर के बाहरी क्षेत्र खेत में उन्हें हल चलाना पड़ा। भाूतत्प (मूलाधार-चक्र) में स्थित सुषुप्ता कुण्डलिनी का जागरण करना ही भूखण्ड में हल चलाना है। जनक द्वारा हल चलाया जाना इसी मूलाधार-चक्र-वेधन का संकेत है। महाराज जनक ने हल-क्रिया से सीता की -शान्ति -रूपिणी सीता की पुत्री रूप में प्राप्ति की। जीव बिना ब्रह्म के रह सकता है, किंतु बिना शान्ति के नहीं। कौशल्या अम्बा ने कहा है-


‘जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहॅ होई बहुत अवलंबा।।’ (मानस 2। 60। 7)
इसी प्रकार राजा दशरथ ने भी कहा है-
‘एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा।।’ (मानस 2। 82। 6)


बिना शान्ति-सीता के महाराज दशरथ का मर्मान्तक मरण हुआ। जिस देश, समाज एवं राष्ट्र की शान्ति नष्ट हो जाय भला वह कब तक जीवित रह सकता है?


ब्रह्म का परम भक्त कौन? जो शान्ति का शोधक हो। शान्ति का शोधक कौन? शक्तिमान् हनुमान। हनुमानजी महान् योगी हैं। योगी का कर्म मिलाना है।


श्री सीता और श्री राम को किसने मिलाया?

सुग्रीव और श्री राम को किसने मिलाया?
विभीषण और श्री राम को किसने मिलाया?
लक्ष्मण को जीवन-दान देकर श्री राम से किसने मिलाया?
विरह-वारिधि में डूबते हुए भरत को श्री राम से किसने मिलाया?
-इन सभी को मिलाया योगिराज हनुमान जी ने ।

योगी संसारार्णवका अतिक्रमण करके ही कैवल्यस्वरूप लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है। इसी प्रकार श्री हनुमान जी सीता -शोध हेतु समुद्र का अतिक्रमण करते है। प्रत्येक साधक को शान्ति की प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम संसार के सागर से पार जाने के लिये अपने आप को तैरने वाला बनाना पड़ता है; अन्यथा वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। श्री हनुमान का समुद्राल्लघंन इसी आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। संसार-सिन्धु का संतरण करनेवाला ही श्री राम का कार्य पूर्ण कर सकता है-

जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर।।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकरा।।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाॅं बिश्रााम।।


विभाीषण का श्री राम से तभी मिलन हो पाता है, ज वे भवन -सिन्धु को पार करते हैं-
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।‘
अध्यात्म -जगत की कोई भी अन्तर्यात्रा हो, किंतु भगवानको आगे किये बिना उसमें सफलता नहीं मिल पाती। इसलिये सागर-संतरण के पूर्व श्री हनुमान श्री रघुनाथ जी को याद करते हैं-
यह कहि नाई सबन्हि कहुॅं माथा। चलेउ हरषि हियॅं धरि रघुनाथा।।
बार बार रघुबीर सॅंभारी। तरकेउ पवन तनय बल भारी।।

सीता जी भी हनुमान को इसीके अनुकूल आदेश देती हैं-
‘रघुपति चरन हृदयॅं धरि तात मधुर फल खाहु।।’
केवल वैराग्य के द्वारा ही सीता-शोध सम्भव हो पाया। बिना नेत्र के किसी भी वस्तु के दर्शन नहीं हो पाते। ज्ञान एवं वैराग्य ही दो नेत्र हैं, अतः ज्ञान- वैराग्य के द्वारा ही सीता का शोध हो पाया-


‘मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।’
(मानस 7। 120। 14-15)

परम शान्तिरूप पद के प्राप्त्यर्थ ही ये दो नेत्र हैं- (1) ज्ञान और (2) वैराग्य। शान्ति की गवेषणा के तीन मार्ग हैं- राग, विराग और अनुराग।


(1) राग है- मोहजन्य आसक्ति, (2) विराग है- अनासक्ति और (3) अनुराग है- परमरात्म-प्रेम। (1) शान्ति की प्राप्ति के लिये रावण की अनुसंधित्सा का मार्ग- रागमार्ग, (2) शान्ति की प्राप्ति के लिये श्री राम की अनुसंघित्सा का मार्ग है-अनुराग मार्ग और (3) शान्ति की प्राप्ति के लिये श्री हनुमान की अनुसंधित्सा का मार्ग है- विराग मार्ग। जब सीता जी श्री राम को एवं पार्वती जी श्री शिव को चाहती हैं तो वे अनुराग-मार्ग का आत्मीकरण करती हैं-

‘पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरू मागा ।।’
सती मरत हरि सन बरू मागा। जनम जनम शिव पद अनुरागा।।’

शान्ति- प्राप्ति के फल भी भिन्न- भिन्न होते हैं-
(1) शान्ति- प्राप्ति से जनक को प्रकाश- प्राप्ति, (2) शान्ति प्राप्ति से श्री राम को विकास- प्राप्ति और (3) शान्ति प्राप्ति से रावण विनाश प्राप्ति।
शान्ति के अनुसंधित्सु रावण का विनाश क्यों? यह इसलिये कि वह शान्ति का पुजारी नहीं, प्रत्युत उसका अपहर्ता है। वह जनकपुर में उसी शान्ति के प्राप्त करने में शास्त्रविहित विधि से प्रयास करने पर पराजित होता है, अतः उसका बल पूर्वक अपहरण करता है। शान्ति प्राप्ति का उसका मार्ग छल-छद्धपूर्ण है।

‘होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी।।’
शोध का यह मार्ग शास्त्र संगत नहीं है-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

(गीता 16/23)

इसलिये भगवान श्री राम कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
शान्ति की प्राप्ति- हेतु कपट एवं बलात् अपहरणपरायण होने का दुष्परिणाम ही है- रावण का सर्वनाश। रावण की दृष्टि में शान्ति पूज्या नहीं, भोग्या है। इसलिये उसका विनाश होता है।
साधक भी आध्यात्मिक सिद्धि को भोग्या नहीं पूज्या मानकर ग्रहण करे; अन्यथा सिद्धि-विलोप एवं साधक का विनाश निश्चित ही है।
शान्ति अपहरण का विषय नहीं, साधना का विषय है। परमात्मशून्य जड़-समाधि में भी शान्ति की प्राप्ति होती है, किंतु वह शान्ति देखने में शान्ति होते हुए भी वस्तुतः अशान्तिमय रहती है। जगत जननी माता सीता श्री राम की शान्ति हैं-
भट जम नियम सैल रजधानी। सान्ति सुमति सुचि सुन्दर रानी।।


वे अशोक के नीचे बैठी रहने पर भी सशोक इसलिये हैं; क्योंकि उनके सामने उनके आत्मस्वरूप श्रीराम नहीं हैं वे कहती हैं-
सुनहि विनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करू हरू मम सोका।।
यह इसी रहस्य का उद्घाटन है कि परमात्मशून्य जड़ समाधि में शान्ति प्राप्त होने पर भी साधक शोक से मुक्त नहीं हो सकता। प्रत्येक साधना में परमात्मा की पुरस्सरता अपरिहार्य है-
‘शान्ति’ ज्ञान- वैराग्य की जननी है। परा भक्ति ही शान्ति है और यही माता सीता हैं।


भक्ति कहती है-
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ में तनयौ मतौ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेनव जर्जरौ।।

यदि भगवती भक्ति (शान्ति=सीता)- के ज्ञान एवं वैराग्य पुत्र हैं, तब तो श्री हनुमान ज्ञान- वैराग्य दोनों ही होने के कारण शान्ति-स्वरूपा-भक्तिस्वरूपा सीताजी के साक्षात् पुत्र हैं; क्योंकि उनके विषय में स्पष्टतः कहा गया है-

  1. ‘प्रनवउॅं पवन कुमार खल बन पावक ज्ञानघन।’ और
  2. प्रबल वैराग्य दारूण प्रभंजनतनय।’ इसीलिये तो श्री सीताजी हनुमानजी को ‘पुत्र’ कहकर सम्बोधित करती हैं- ‘अजर अमर गुन निधि सुत होहू।’ और हनुमान जी भी सीताजी को ‘माता कहकर सम्बोधित करते हैं- ‘राम दूत मैं मातु जानकी।’

साधक को शान्ति की प्राप्ति के लिये वैराग्य का मार्ग गृहण करते हुए मात्र भावना से अग्रसर होना चाहिये। तभी वियुक्ताकुला को वियुक्त आकुल के साथ सामरस्य कराने में-वियुक्ता शान्तिस्वरूपा सीता को वियुक्त परब्रह्म श्री राम से मिलाने में साधक को सफलता मिल सकती है, अन्यथा नहीं। यही है उपर्युक्त कथांश का रहस्य।


विरागी साधक की परीक्षा की कसौटी उसका गुणतीत होना है।- ‘गुणातीत सचराचर स्वामी’, इसीलिये उसके साधक को भी गुणातीत होना चाहिये- ‘निस्वैगुण्यो भवार्जुन।’ (गीता 2/45)


हनुमान गुणातीत हैं। अतः गुणसंकुल पदार्थों से विरक्त हैं। यही कारण है कि जब सीताजी यह वरदान देती हैं-
‘आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना। अजर अमर गुन निधि सुत होहू।’ -तब हनुमान को कोई प्रसन्नता नहीं होती। किंतु जब वे यह वरदान देती हैं-


करहुॅं बहुत रघुनायक छोहू।।’
करहुॅं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।

-तब वे हर्षमग्न हो उठते हैं।
ठीक भी है, यथार्थ साधक की कसौटी उसकी ऐहिक सिद्धियाॅं नहीं हैं; उसकी अनुसंधित्सा है- भगवत्कृपा। उसकी सिद्धि की कसौटी है-भगवत्प्रेमकी प्रगाढ़ता है।

परम शान्ति का शोध एवं उसकी प्रत्यभिज्ञा केवल वैराग्य ही कर पाता है। शक्ति एवं शक्तिमान् के वियोग को संयोग में परिवर्तित करने वाला एक मात्र साधन हैं- भगवत्प्रेमपुरस्सर वैराग्य। शक्तिमान् परब्रह्म (श्री राम) अपनी वियुक्ता शक्ति (सीता)- की शोध के लिये केवल वैराग्य (हनुमान)- को दूत बनाकर भेजते हैं। ब्रह्म अपनी वियुक्ता शक्ति के (सम्मिलनके) आश्वासनार्थ एवं वैराग्य पर विश्वास करने के लिये अपनी मुद्रिका केवल वैराग्य को ही देते हैं। स्पष्ट है कि वैराग्य को भी बिना भगवत्कृपा के शान्ति प्राप्त हो पाना सम्भव नहीं। यदि शान्ति प्राप्त भी हो जाय तो शान्ति को वैराग्यपर विश्वास नहीं होगा।


वैराग्य तभी तक अपने उद्यमों में सक्षम है, जबतक ब्रह्म साधक को अपनी कृपारूपिणी प्रत्यभिज्ञा (मुद्रिका) प्रदान नहीं कर देता। अन्यथा शन्ति का साक्षात्कार हो जोने पर भी साधकको शान्ति अशान्त दिखायी पड़ती है और शान्ति साधक के विरूद्ध कुशंकाए करने के कारण उस पर विश्वास नहीं करती। मुद्रिका-प्राप्ति ही साधक और साध्य के यथार्थ साक्षात्कार का वास्तविक माध्यम है।


साधन-मार्ग में मान का त्याग होना प्रथम संविदा है। श्री हनुमानजी का अर्थ है- ‘जिसका मान नष्ट हो चुका हो।’ आत्माभिमान साधना-जगत् का दारूण प्रत्यूह है। यही कारण है कि हनुमान बार-बार लघु रूप घारण करते हैं-

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
‘अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।’
‘अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिर भगवाना।।’
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।

शान्ति की गवेषणा के प्रकारान्तरसे तीन मार्ग और हैं- (1) कर्म-मार्ग, (2) भक्ति- मार्ग, (3) ज्ञान-मार्ग। वैराग्य ज्ञान-मार्ग से गवेषणा करता है, अतः हनुमान जी आकाशा मार्ग से या़त्रा करते हैं। ज्ञान निरालग्ब है और आकाश भी निरालम्ब है। अतः आकाश मार्ग ‘ज्ञानमार्ग’ का प्रतीक है। समुद्र-संतरण के बिना लक्ष्य प्राप्ति असम्भव है-
‘जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर।।’
साधक के लिये राम-काज क्या है? शान्ति-सीता का शोध।


आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा के मार्ग में अनेक बाधाए आती हंै। ये बाधाएॅं हैं- (1) सत्वगुणी माया की बाधा- सुरसा, (2) रजोगुणी माया की बाधा- लंकिनी और (3) तमोगुणी माया की बाधा-सिंहिका। ये तीनों नारियाॅं ही त्रिगुणात्मिका माया के तीन रूप हैं। श्री हनुमान जी को सीता -शोध में तीनों बाधाएॅं नारी के द्वारा हुई। अतः साधक को मायारूपी नारीसे सदैव सावधान रहना चाहिये। श्री हनुमानजी ने सुरसा को प्रणाम करके अपनी रक्षा की, रजोगुणीलंकिनी को अर्धमृता करके छोड़ दिया तथा तमोगुणी सिंहिका का प्राणान्त कर दिया। इसी प्रकार साधक को तीनों गुणों का यथोचित उपयोग करना चाहिये, तभी वह प्रत्यूहों के पार जाकर अपनी रक्षा कर पाता है।
श्री हनुमान ने लंका में पहुॅंचने पर सीता की खोज करने के निमित्त कनक-भवन का शोध किया। कनक-भवन का त्याग करने के बाद भी कनक-मृग पर मुग्ध सीताजी कनक-नगरी लंका में बंदिनी बन गयीं। इसीलिये हनुमानजी ने उन्हें कनक-भवन में खोजा। उन्होंने विचार किया कि सीताजी को कनक में शान्ति थी, अतः वे शान्ति को कनक में खोजने लगे। कनक-नगरी में सीता (शान्ति) नहीं मिली। वस्तुतः स्वर्ण में शान्ति नहीं, वहाॅं शान्ति की भ्रान्ति मात्र है। यदि स्वर्ण में शान्ति होती तो स्वर्णपुर के स्वर्णशोध के स्वामी राक्षसराज रावण को लंका में ही शान्ति मिल गयी होती; किन्तु उसे शान्ति नहीं मिली। श्री हनुमानजी ने कनक-नगरी स्थित कनक भवन के प्रत्येक खण्ड में सीताजी का शोध किया-‘मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।’ किंतु ‘मंदिर महुॅं न दीख बैदेही।।’ श्री हनुमानजी ने सोचा कि यहाॅॅं तो सब ‘सोने’ वाले हैं; अतः किसी जागनेवाले से सीताजी का पता पूछना चाहिये-

मन महुॅं तरक करैं कपि लगा। तेही समय बिभीषनु जागा।।
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदय हरष कपि संज्जन चीन्हा।।

शान्ति की प्राप्ति की युक्ति किसी भगव˜क्तक के पास ही होती है, अतः शान्ति-शोधक वैराग्य (श्री हनुमान) को उसे पाने की युक्ति मिल गयी-
‘जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।’
उस अशोक-वन में आकर हनुमानजी ने देखा कि ‘सीता बैठि सोच रत अहई।’ -उस अशोक-वन में भी सीता अ-शोक नहीं, स-शोक हैं।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करू हरू मम सोका।
कपि करि हृदय बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जन असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।

अशोक ने वस्तुतः ऐसा अंगार गिरा दिया, जिसमें जानकी जी का समस्त शोक जलकर भस्म हो गया। जानकी जी ने कहा था- ‘हे अशोकः ! मेरे शोक को हरकर अपने नाम को सत्य करों।’ अशोक ने अपना नाम सत्य कर दिया-


तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष विषाद हृदय अकुलानी।।

राम नाम- अंकित मुद्रिका पाकर परम अशान्त माता सीता को परम शान्ति मिली-
रामचंद्र गुन बरनै लागा। सुनतहि सीता कर दुख भागा।।’
क्षणस्थायी राग-शून्यता वैराग्य नहीं है। वैराग्य तो वह है, जो कभी भी जरा-जर्जर न हो, शिथिल न हो अपितु अमर रहे, सर्वत्र-सर्वत्र तरूण रहे। सीतारूपा शान्ति ने हनुमानरूप वैराग्य से कहा-


अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहॅुं बहुत रघुनायक छोहू।
करहुॅं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।


यह निर्भर प्रेम ही तो परम शान्ति है-
निर्भरानन्द-संदोह कपि-केसरी, केसरी-सुवन भुवनैक भर्ता।।
(विनय-पत्रिका 29/9)

सुन्दरकाण्ड के आरम्भ के मंगलाचरण में ही श्री गोस्वामी जी ने लिखा है- ‘शान्तम्’ ‘शाश्वतम्’ और ‘शान्तिप्रदम्’; पर शान्त वही होगा, जिसे शान्ति मिली होगी। इस काण्ड में (1) शान्ति- सीता का समाचार पाकर अशान्त श्री राम को शान्ति मिली, (2) समुद्र-तट पर बैठी हुई मरणासन्न वानरी-सेना को शान्ति मिली, (3) हनुमानजी को तो साक्षात् शान्ति देवी से वरदान पाकर परम शान्ति मिली और (4) वैराग्य पुत्र के द्वारा श्री राम -नाम तथा श्री राम-कथा और ‘रामनाम अंकित अति संुदर’।। मुद्रिका पाकर शान्ति देवी को महाशान्ति मिली। अतः इस काण्ड का प्रथम मंगलाचरण ‘शान्तम्’ एवं ‘शान्तिप्रदम्’ के शोध से आरम्भ होता है- ‘शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदम्।’


प्रिय पाठक बन्धु मेरे लेख से आपको अत्यन्त फायदा हुआ होगा मुझे श्री सीताराम जी श्री हनुमान जी पर अथाय विश्वास है यदि कही लिखते समय गल्ती या गलत टाइप हो गया हो तो अपने अनुसार मंथन करने पर शब्द निकल आयेगा। मेरी अन्र्तआत्मा से यह लेख अधिक से अधिक लागों तक पहुॅंचना चाहिये जिससे लोक जन कल्याण हो ।

लेखक- डाॅं0 श्रीश्यामाकान्त द्विवेदी, ’आनन्द’, एम0ए0 (हिंदी, संस्कृत, दर्शन) बी0एड0, पी-एच0डी0, व्याकरणाचार्य}

सभी को मेरा हृदय से – ।। जय सियाराम, जय हनुमान।।

लेखक-अनिल यादव।

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